घर की लाज | Ghar Ki Laaz
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
278
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नरक १नन
की है और करते चले आ रहे हैं”--इतने में रसेशचन्द्र बाहर
से घूमकर झा गए आर भीतर छाकर लज्जा से बोले--
““उयोत्सना को कौन सा उपदेश दे रही हो ?”
इसी तरह कुछ बातें हो रही थी । आजकल उपदेश देना तो
एक परम्परा है. जिसका प्रभाव एक चिकने घड़ पर पानी की
वटं के सदृश होता दै 1
(तुम् उदास क्यों हो ज्योत्स्ना ?
डूबते को तिनके का सहारा मिला ! निरालम्ब, निस्पहाय
उ्योत्समा को पनः एक सुद्ढ़ किनारा मिला वह कहने लगीः--
“मैया ! मैं झाजकल सब की आँखों का काँटा हो रही हूँ. ।”
“कया कहा” आश्चयं से सुरेशचन्द्र के नेत्र तन गए ।
“हाँ मैया, मेरी स्वतन्त्रता पर लोगों को ईष्या है ।””
“तो क्या तुम्हारी भाभी ने तुम्हें कुछ कहा है. ।” कहते हुए
` सुरे चन्द्र ने अपनी वक्र दृष्टि ललना की तरफ पकी चर् गम्भीर
होकर बोले--“देखो, खिलती हृ कली को पैरों से कुचल देना
शक्ति ओर साहस का परिचायक नही--तुम ज्योत्सना से बढ़ी
हो--बडे होने फे अधिकार का दुरुपयोग करना ही छोटे की
खों से इतर जाना है । इसे कभी नहीं भूलना चाददिये ।” पति
की चात ला अधिके न सह सकी । उसे बड़ी मानसिक पीडा
हृ । उसे आशा न थी कि केवल एक बात के लिए गृह म भूकम्प
का-सा ख्न्ुभव होगा । वह प्रातःकालीन किरणों के समान पीली
पड़ गयी अर नुपचाप कसरे से वाहर हो गयी । सुरेशचन्द्र भी
किमी चिन्ता में धीरे धीरे च्ल पड़े परन्तु ज्योरना अचक्-
समाधि-सी चुप थी]
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