घर की लाज | Ghar Ki Laaz

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Ghar Ki Laaz by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नरक १नन की है और करते चले आ रहे हैं”--इतने में रसेशचन्द्र बाहर से घूमकर झा गए आर भीतर छाकर लज्जा से बोले-- ““उयोत्सना को कौन सा उपदेश दे रही हो ?” इसी तरह कुछ बातें हो रही थी । आजकल उपदेश देना तो एक परम्परा है. जिसका प्रभाव एक चिकने घड़ पर पानी की वटं के सदृश होता दै 1 (तुम्‌ उदास क्यों हो ज्योत्स्ना ? डूबते को तिनके का सहारा मिला ! निरालम्ब, निस्पहाय उ्योत्समा को पनः एक सुद्ढ़ किनारा मिला वह कहने लगीः-- “मैया ! मैं झाजकल सब की आँखों का काँटा हो रही हूँ. ।” “कया कहा” आश्चयं से सुरेशचन्द्र के नेत्र तन गए । “हाँ मैया, मेरी स्वतन्त्रता पर लोगों को ईष्या है ।”” “तो क्या तुम्हारी भाभी ने तुम्हें कुछ कहा है. ।” कहते हुए ` सुरे चन्द्र ने अपनी वक्र दृष्टि ललना की तरफ पकी चर्‌ गम्भीर होकर बोले--“देखो, खिलती हृ कली को पैरों से कुचल देना शक्ति ओर साहस का परिचायक नही--तुम ज्योत्सना से बढ़ी हो--बडे होने फे अधिकार का दुरुपयोग करना ही छोटे की खों से इतर जाना है । इसे कभी नहीं भूलना चाददिये ।” पति की चात ला अधिके न सह सकी । उसे बड़ी मानसिक पीडा हृ । उसे आशा न थी कि केवल एक बात के लिए गृह म भूकम्प का-सा ख्न्ुभव होगा । वह प्रातःकालीन किरणों के समान पीली पड़ गयी अर नुपचाप कसरे से वाहर हो गयी । सुरेशचन्द्र भी किमी चिन्ता में धीरे धीरे च्ल पड़े परन्तु ज्योरना अचक्- समाधि-सी चुप थी] 4 > >€ ¦ *९ ध रन




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