समयसार | Samaysaar

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Samaysaar by जयसेनाचार्य- Jaysenacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वास्तव में देखा जाय तो 1५885 (डॉक्टर) यह वाह्य लौकिक पदवी लेकर के परभणी में अपनी प्रॉक्टीस करने वाले गृहस्थ को लाखों रुपये कमाकर ऐश-आराम से रहना यह कोई कठिन वात नहीं थी। परतु जिस व्यक्ति को इस ससार की क्षणभगुरता ध्यान मेँ आयी, सुख अथवा आनद पर (वाह्य) वस्तु में नहीं, पर वस्तु मे आनद मिलना ही अशक्य है । एक ध्रुवधाम की आराधना ही शाश्वत सुख का कारण है, धन्य उस आत्मा को । उप्र की एेन तारुण्य एेन जवानी अवस्था में जिसके ज्ञान में वास्तविक सच्चे सुख का मार्ग भासित हुआ। ससार की ओर सयोग की दु खरूपता भासित हुई | धन्य है उस ज्ञान को, धन्य हे वह जीवात्मा - ““ चद्रकात'' । चद्रकात यह उनका जन्म नाम था! श्री चद्रकात का जन्म भावुर्डी गाव में (तालुका मालशिरस) (जि - सोलापूर) भद्रेश्वर गोत्र मेँ धर्मवत्सल श्री गुलावचद खेमचद दोशी जी के यहाँ हुआ। उनकी माता का नाम चचला बाई है। ५ मई १९४०, शके १८६२ चेत्र वद्य १३, रविवार के दिन उनका जन्म हुआ। लौकिक शिक्षण प्राथमिक और माध्यमिक शाला, अकलूज में होने के वाद उच्च शिक्षण पूना में हुआ। वी जे मेडीकल कालेज, पूना से ॥॥8 8 5 यह वेद्यकीय ज्ञान की उच्च पदवी पाने के वाद उन्होंने अपनी प्रैक्टीस परभणी से शुरु की। उनकी पत्नी का नाम “अनघा” था। प्रीक्टीस करते-करते अनेक ग्रथों का शास्त्रोक्त अध्ययन उन्होंने शुरु किया । रुचि वढती गयी । अध्ययन में साथ देने वाली और रुचि रखने वाली सुयोग्य पत्नी के कारण धार्मिक अभ्यास से उनका उत्साह वढता गया, वाचन-मनन-चितन से ज्ञानशक्ति के साथ-साथ वैराग्यशक्ति का भी विकास होने लगा। एक दिन कुधलगिरि आने का प्रसग आया। वहाँ श्री १०८ भव्यसागर जी महाराज मिले, उनके पास चद्रकात जी ने प्रथम व्रत “रात्रि भोजन त्याग” व्रत लिया। उस वक्‍त श्री चद्रकान्त जी को अल्सर के कारण भस्मक रोग जैसी व्याधि होने से आधे-आधे घटे में खाना लगता था। रात मेँ भी खाना पडता था। लेकिन दृढ निश्चय के साथ दस दिन का रात्रिभोजनत्याग व्रत लिया ओर वह आजन्म वन गया, वह इतना ही नहीं महाव्रत में पलट गया। एक दिन आनद की खवर मिली । श्री चद्रकात जी ओर सो अनघा दोनों को दीक्षा का दिन निश्चित हुआ । अक्षय तृतीया वीर्‌ सवत २५०१, १८ मई, १९७५ अकलूज मेँ स्व॒गुस्वर्य आदिसागरजी महाराज के सानिध्य में श्री चढ़कात जी निर्ग्रन्थ मुनि ओर सौ अनघा क्षूल्लिकाखप मेँ गृहस्थ दशा का त्याग करके दीक्षित हूए । प्रथम चातुर्मास शिरड शहापुर्‌ मे होने के वाद सोलापुर, कुधलगिरि, अक्कलकोट, करमाढा, पढरपुर के चातुर्मास होने के वाद ध्यान-अध्ययन मेँ मग्न तपस्वी मुनिराज वीरसागरजी का अध्ययन अध्यापन करते सन्‌ १९८६ में - समयसार की अदूभुत महिमा आज वताऊँ भली-भली, सुन लो सच्चे सुख के वाच्छक इस सुमधुर गीत के निनाद में यहाँ नातेपुते में स्वागत हुआ।




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