प्राचीन भारत के राजनैतिक सिद्धान्त एवं संस्थाएँ | Pracheen Bharat Ke Rajnaitik Siddhant Evam Sansthayein

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Pracheen Bharat Ke Rajnaitik Siddhant Evam Sansthayein by हरिविलास मिश्र - Harivilas Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) बहुत दीर्ध कालं तक यह एक स्वीकृत भारतीय परम्परा रही है कि लेखक स्वयं खपे नाम का उल्लेख नहीं करता था। ऐसे श्रनिवार्य स्थलों पर जहां स्वयं का नाम श्रावश्यक हो सर्वनाम में प्रथम पुरुष के स्थान पर श्रन्य पुरुष का प्रयोग किया जाता था । मैं या हम के स्थान पर उस या वहूं का प्रयोग के. की प्रथा सी थी । इसीलिए कौटिल्य ने भी इसी प्रथा का ग्रचुसरण किया. है । इस प्रकार ्र्थेशास्त्र के रचयिता कौटित्य ही थे, इसमें सन्देह का स्थान नहीं है। दूसरे पक्ष के विद्वानों का यह कथन है कि यह ग्रंथ कौटिल्य द्वारा नहीं लिखा गया । प्रथम, तो इसलिए कि. मौर्यकाल में उपस्थित होते हुए भी उसने मीय॑कालीन प्रशा- सन की सारी विदेषताओ्रों का वर्णन नहीं किया । ऐसी श्रनेक प्रधान बातें हैं जिनका उल्लेख हमें भ्रत्य स्रोतों जैसे युनानी आदि में मिलता है श्रौर स्वयं कौटिल्य के श्रपने इस ग्रंथ में वे उपलब्ध नहीं है । दूसरे, विदेशियों के प्रति क्या व्यवहार होना चाहिए था, सिद्धान्त किस प्रकार के थे, उनकी रक्षा का भार राज्य पर था या नहीं, ऐसा महत्वपूर्ण वर्णन श्रर्धशास्त् में नहीं है । तीसरे, यह ग्रथ यद्वि स्वयं कौटिल्य द्वारा लिखित होता तो वह स्वयं भपने लिए सर्वनाम के उत्तम पुरुष का प्रणोग वयों करता ? इस प्रकार यह सिद्ध होता है, कि मर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य नहीं थे 1 डा० अल्टेकर के मतानुमार “कौटिल्य” नाम ्रच्छा नहीं है; परन्तु केवल इसोलिए हम अर्थशास्त्र की ऐतिहासिकता पर संदेह नहीं कर सकते क्योंकि इसी प्रकार के शुष्क श्रथवा स्पष्ट नाम उनसे पूवं भी प्रचारित रहे थे जेसे वातुव्याधि, कोणापदांत ग्रादि । साथ यह्‌ भी नहीं कहा जा सकता कि यह भास के वाद को कृति है. क्योंकि ग्रथशास्त्र के कई उद्धरण भास की कृति में ज्यों के त्यों उपलब्ध है क्योंकि कौटिल्य ने झपने पूर्व के समस्त स्रोत स्पष्ट रूप से स्वीकार किए हैं श्रौर भास उनमें नहीं है यह कहना कि मेगास्यनीज ने ग्रपन संस्मरणों मे कौटिल्य का नाम नहीं लिखा, एक उचित वति हौ सकती थी, १नन्तुवै भी हमे, पूरे रूपमे प्राप्त नहीं ह । इसी प्रकार पात्तजलि हारा कौटिल्य का उल्लेख न करना भी इसको एेत्तिहासिकता के विरुद्ध नहीं माना जः सक्ता, क्योकि संभव है ऐसा प्रसंग ही न्रा पायाहौो 1 अ्रशोक श्रौर बिदुसार का उल्लेख भी तो वहां नहीं है । इसलिए यह वाद भी उपयुक्त नहीं हो सकता । इसके विपरीत समर्थन में ग्रनेक बातों पर विचार किया जा सकता है । प्रथम, कौटिल्य ने उस समाज का वर्णन किया है जिसमें विधवा पुनविवाह,- विवाहु-विच्छेद, तथा वयस्क विवाह श्रादि प्रचलित थे श्रौर यह श्रवस्था मौयंकाल में उपस्थित थी । दूसरे, उस समय बौद्ध घर्मावलम्वियों के प्रति सम्मान का यभाव था श्रौर, परिवार की उचित व्यवस्था किए बिना साधु बनना अनुचित माना जाता था | ऐसी स्थिति ' इस चात को योत्तक है कि बुद्ध-धर्म उस समय तक हढ़ नहीं था । यह भी मोर्यकाल को परिश्विततियों में १ इसी प्रकार भराचीन काल मैं ऐसे श्रनेक नाम थे जैसे कुत्स (त[ज560072) नो सप्तकषियों = क क दिवो ही ५ मतिर में से एक हैं, शुनशेफ (2048. {11}, दिवोदसा, (10€-लप्ल), चमंसिर 1 द्ताल तलप) - आदि जिनका तात्पयं शाब्दिक थर्थ के श्रनुसार लगाया जाय तो झनर्थ हो जाय जो ऊपर दगरिरा में लिखे गए हैं ।




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