राजविलास | Rajvilas

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Rajvilas by मोतीलाल मेनारिया - Motilal Menaria

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २२ ) कूटाधिप॑तिः ॥ राणा श्रीजयसिहजी विजयमानराज्ये सं० १७४६ कार्तिक दीप- मालिका बुद्धवांसरे श्राचद्राक्के नद्यादयं प्रथः लेखकपाठकश्रनोतृणा श्रीदो वरदो भवतुः श्रीः भीः श्री: श्री: ।* इसके श्रवूलोकन से स्पष्ट है कि मान कवि ने जिस समय राजविलास की रचना की उस समय महाराणा श्रीजयसिहजी “कुंश्ारपद' पर ये श्चर्थात्‌ उस समय वे राजा नहीं हुए थे; युवराज या राजकुमार मात्र थे । पर श्रीमानसिह ने जब उक्त हस्तलेख लिखा ( श्रर्थात्‌ सं० १७४६ मे ) तब वे शभीचित्रकूटाधिपति राणा श्रीजयसिह थे । उनके 'विजयमान राज्य” में बृहत्‌ तटाक पर लिपिकर्ता ने हस्तलेख का लेखन किया तथा उक्त संवत्‌ की कार्तिक बदी दीपमालिका ( दीवाली ) को बुध के दिंन उसे समास किया । श्रीराजसिहजी का देहात सं० १८३७ में कार्तिक सुदी दशमी को इुश्रा था श्और श्रीजयसिद्द की गद्दीनशीनी पिता के देहात पर छुरज ( जिसे राज- प्रशस्ति में कडज लिखा है ) गोव में हुई । वे उस समय उसी गाव में थे जहाँ उन्हें महाराणा श्रीराजिंह के देहावसान का समाचार मिला ।# महाराणा श्रीजयरसिंह का देहावसान सं १७४५५ में श्राश्विन बदी चतुदशी को हुआ था | शभीमानसिह के सर्व॑ में उक्त पुष्पिका के श्राघार पर यह संभावना की जा सकती है कि वे कदाचित्‌ मान कवि द्वारा प्रंथ समाप्त करने के श्रवसर पर भौतिक शरीर धारण कर चुके थे श्र सुबोध भी थे । इसी पुष्पिका में ये “कविः? नाम से श्रमिहित हैं श्रौर श्रीः श्रौर “जी” से भी अ्लंकृत है । श्बृहत्‌ तटाकः पर रहते भी ये । इससे इनके जैन होने की सभावना की जा सकती है । इस प्रकार रल्ाकरजी ने जो जनश्चति दी है उससे यदि इस हस्तलेख के लिखक ( लिपिकतां ) “कवि श्रीमानसिहजीः का सं्बध हो तो श्रसंभव नहीं । इस प्रकार राज्विल्लाख के क्ता मान कवि श्रौर बिह्दारीसतसद् के टीकाकार मानसिह भिन्न भिन्न नामों के ही कारण भिन्न भिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं। दोनों के पाथक्य में मेनारियाजी की यह स्थापना भी मानी जा सकती है कि राजविज्ञास की ब्रजभाषा श्र प्रिहारीसतसई् की टीका की व्रजमाघ्रा में भी साम्य नहीं है । ` > देखिए श्रागारीशकर हरायद श्रो कृत ' उदयपुर राज्य का इतिइास”, भाग २, १४ ५८१ । 1 देखिए वही, 9४ ५४६४ ।




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