जैनेन्द्र के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन | Jainendra Ke Upanyaso Ka Manovaigyanik Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विद्या ददाति विनयं विनयादायाति पात्रतां; पान्नत्वाद्धनंमाप्नोति ततो धर्म ततो सुखम्‌ । मतलब कि ज्ञान-गौरव सुख के मूल में है, वह्दी सब कुछ देता, सबके लिए मार्ग प्रयास्त करता है। पर जीन झास्टिन के उपन्यासों में तो न्ञान-गोरव के नाम पर कुछ भी प्राप्त नयीं । फिर उनमें इतना झाकपंण कहाँ से श्रा गया ? इस प्रदन का समाघान कुछ लोगों ने टेकनीक तथा सूक्ष्म निरीक्षण की वात कहकर करने का प्रयत्न किया है । कहा हैं कि जीन श्रास्टिन के प्लाट बड़े सुसंगठित हैं, कया साफ-सुथरी है, उपन्यास लेखिका का निरीक्षण बहुत सुक्ष्म है झ्रतः उनकी रचना श्राकर्षक हो गई हूँ । परन्तु इनकी रचनाश्रों में जो सावंभौम अपील है वह टेकनीक जैसी सस्ती श्राघार पर खड़ी नद्दीं रह सकती । टेकनीक बाहरी चीज है, वह दयोभावद्धक तत्व तो हो सकती है पर प्राणाघायकत्व उसमें नहीं रा सकता । हाँ, सूक्ष्म निरीक्षण की वात कुछ समभक में झा सकती है । ऑआलोचकों ने देखा है कि जीन शभ्रास्टिन के सब उपन्यासों में, केवल अन्तिम उपन्यास फ८50#1100 को छोड़कर, कथाएँ मिलते-जुलते समान प्रतिरूप में विक- सित हुई हैं, एक ही ढाँचे में ढली है, उनका पैटने (981/600)' समान ही है । सभी. नायिकाओं के दो प्रेमी हैं। एक झाक्पंक है, सुन्दर है, नवयुवक है । नायिकाओं का :समवयस्क भी है, नायिकाओं की माताओं की आर से भी इन को 'नायंकों समर्थन प्राप्त होती है श्नौर वे चांहती हैं कि उनकी पुन्रियाँ, उनके .प्रस्ताव को स्वीकार कर उनसे विवाह करें । दूसरा प्रेमी इतना श्राक्पक़ तो नहीं है. पर संभ्रम है, उदार है, गम्भीर है, कदाचित कुछ श्रवस्था में भी .वह कन्याओं .सेः वड़ा है; कन्याश्रों की साताओओं द्वारा. उन्हें समर्थन प्राप्त नहीं है ।'पर फिर भी कन्यायें प्रथम वर्ग के प्रेमियों का तिरस्कार कर दूसरे वर्ग वाले व्यक्तियों से हीः विवाह करती हैं । मतलव यह कि जिसे मनोविद्लेपण में इडियस परिस्थिति (छ्तीफुप भंधप्रशा0ण ) कहा गया है उसकी सारी सामग्री वत्तंमान है । यहाँ नायिकाओं की वात चल रही है अतः इडिपस परिस्थिति न कह कर एलेक्ट्रा परिस्थिति (16078 अं(ए8घ07 )' कहना अधिक उपयुक्त होगा । वालिका पिता को प्यार करती है श्रौर बालक माता को । यहाँ प्रथम वर्ग के जितने प्रणय-प्रार्थी. हैं वे माताओं के लिये पुन्नस्थानापन्न है श्र दूसरे वर्ग के प्रणयी कन्याशओं के लिये पिता-स्थोनीय हैं । अतः माताओं का पक्षपात प्रथम वर्ग के साथ है तथा कन्यात्रों का द्वितीय वर्ग के साथ .। भ्र्थात्‌ कन्याओओं ने विवाह किया है पतियों के साथ ही पर यह उनके चेतन मस्तिष्क की ही कल्पना है । वास्तव में उनका झ्रचेतन: उनको पिता के रूप में ही देखता है श्रौर तृप्ति लाभ करता है । जैनेन्द्र कथा साहित्यं : एक मनोवैज्ञानिक श्रभिगम .: &३-




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