विद्याघर - ग्रन्थावली | Vidyadhar Granthavali
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8.85 MB
कुल पष्ठ :
357
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विद्याघर ग्रन्थावली
गीत॑ यथा गीतमहों पुराण स्तथा न गातु विभवों सदीयः
श्रुतानि गीतानि पर॑ कवीनां तान्येव गुल्जामि मनोवितनोदी ॥&॥!
भानुप्रकादे प्रतते प्रकाममसु सदा सुरम्ये च.. शिप्रकादो
खद्योतरेखापि विभाति रात्री स एप. धरमं: प्रकृतेरनादि: ॥१०॥।
दिव्य: प्रकाशेश्न॒ तमोध्पहारे कृतेउपि तन्नक्यति नैव कृत्स्तमु
क्वचितु शलाकैव भवेतुकृतार्था सर्व निजस्थानगतं हि. रम्यस् ॥११॥।
जानेश्थ का. नाम. गतिर्मदीया कविप्रसंगे भविता भवे5स्मिनु
सरस्वतीती र-विहवाररोधी वृतो विधि: कोशषपि' पर॑ न घात्रा ॥१रा।
मन्ये च नेद॑ सरलं हि कार्य मनोरथ: किन्तु जगदुविहारी
सृष्टो विधात्रा च. जनों जगत्यां. सनातनायैव जयार्जनाय 11१३1
प्रतिक्षणं यत्र मतिर्नवीना गति नंवीनैव च यत्र नित्यमु
कथं न तस्मिद् नवमस्तु काव्य युगे युगे. नव्यविमर्ाश्ीले ॥1१४॥।
नवं पुराण नच वेद्मि किल्चित् सदा नव यस्य कृते पुराणमु
ह्लासो विकासश्र सदा समेती मह्म न भेदोध्स्ति हरे हरौ वा ॥१४५॥।
रोगों विचित्रोध्द गतश्न वृद्धि महानयं संस्कतपण्डितानासु
हितैषिभि: सत्वरमेव शाम्यों विलोक्यते येन नवं न किंचितु ॥॥१६॥।
निजात्मविद्वासविह्दीनवृत्ति: . सदा. पराधीनमत्तिश्र. कश्र्चितु
गदों महान नव्यविकासरोधी साहित्यसम्वृद्धि-विनादाकोझ्यसु ॥१७।।
श्रययापि कि नव मनोविकासा हासा विलासाइच भवे भवन्ति
जीर्णों न नष्टो जगदन्तरात्सा विकासशील: स सदा स्वभावातु ॥१८ा।
नास्यौपघं॑ वेद गदस्य सम्यक् तहेयमग्रे निपुखे भिपग्भि: ५
यथा प्रतीत कथित तथा तत् परीक्षणीयं सततं सुधीभि: 11१६
न दूयतां कस्य मनश्र लोके न भावनाजुन्यमिदं॑ यदि स्यातु
विलोक्य वर्माह्रिमुखै दिवान्वे:सदुभारतीयां स्वगति निरुद्धामु 1२०!
यद॒॒ वानरेंरद्य विवेक शुन्ये रुद्यानवीथी. क्रियते विदीर्ण
पथि स्थितैश्वापि विधेय एवं स्वल्पो्पि कश्रितु प्रतिरलियत्त: ॥२१॥।
घूमावृता हन्त कृताद्य यरमात् सत्संस्कृति भा रतजा स्वमौर्ख्याद्
केनापि. सत्येन महौजसा सा. संदीपनीया त्वरयैव बिजै: 11२२1
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