हिन्दी काव्य की भक्तिकालीन प्रवृत्तियाँ और उनके मूलस्त्रोत | Hindi Kavya Ki Bhaktikalin Pravrittiyan Aur Unake Mul Strot

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२०] [ दिन्दीकाव्य की मप्र श्रौर उनके मूल्यो १--गोविन्द की कृपा से गुर की प्राप्ति होती है । स-माया, मोर, वृष्णा, कचन श्रौर कासिनी के प्रति विरक्ति, भक्ति और ज्ञान बी प्राप्ति श्रादि शुरध के ही द्वारा संभव है । ३--महात्मा क्वीर का कयन है कि मनुत्य को भक्ति प्राप्ति के लिये प्रयन करना आवदयक है, जो गुर की सेया श्र सतूसगति से ही संभव है | टे लिये श्रपने श्रवगुणों का परित्याग करते जाना तथा सदूयुखो का सप्र करते रहना बहुत श्रावय्यक है | अ--साधक शर्त में विरह-साधना मे प्रपरिप्ट होता है। श्र उसके लिए मात्र नामस्मरण का ही श्राघार बच पाता है। ब्िरद की साधना में चक्र भक्त श्रात्म समपंण॒ कर देता है। यहीं भावना लौः नामने निर्यात है । भ--ग्रात्म समपंण की भावना ईदवर के प्रति हो ! कवीर ने ग्रलख, राम, निरजन श्रौर हरि द्वादि द्नेक नाम लिया है, जो ब्रहा के प्रतीक हैं । उनका कथन है कि जी निराकार हैं, उसके गुणों थॉ'झावगुणो के वर्णन करने की चामता प्राणी-मान मे नहीं है । उनके इन नामी के साथ माय यनुग्रदद को भाय हो सकता है । इसके पदचात्‌ साधक प्रेम श्रीर श्रात्स समर्पण का भाय प्रकट करता रै | यह्‌ स्थिति श्गि चलकर इतनी बटु जाती दै कि साधक श्रपने को ध्तम की ब्हरियाः का ग्नुमव करने लगता रै । इ प्रकार महात्मा करीर के बिचार, बैप्णव मत के द्न्यधिक समीप हैं | जो द्न्तर है, बट श्रालम्बन में छुछ देर फेर हो जाने के कारण साधनों में ही । श्वतार- वादी दृष्टिकोण को न शछपनाने क कारण मटात्मा करीर सूप विग्रदे दर व्यान- धारणा को सवथा भामते टी नही; परन्ठ॒ ये शलयः की स्थिति म प्रविष्ट टोन के लिए गोरखमत मे प्रचलित कु डलिनी, सुयुम्ना श्रौर धपयक्मल श्ादि के महत्य को मान लेते हें । साथना को इन्होंने सहज माना है | योग साथना के वाह्याचारों को न मानते हुए भी कुडलिनी जाति केवाली योग स्पधना को थोड़ा-सा कबीर ने अदण किया है। किन्तु उसमे भी भक्ति को ही प्रधानता उन्होंने दी है |




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