हिंदी जैन साहित्य परिशीलन | Hindi Jain Sahitya Parishilan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
252
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दार्निक आधार २५
प्रादुर्माव हो जानेपर आत्मा स्वोन्मुखरूपसे प्रदत्त करती है, जिससे राग-
देषके सस्कार शिथिल और शीण होने लगते है तथा रत्नचयके परिपूर्ण
होनेपर आत्मा परमात्मा अवस्थाकों प्राप्त हो जाती है। अतः आत्म-गोघनमें
सम्यक् श्रद्धा और सम्यस्ानके साथ सदाचारका सहत्वपूर्ण स्थान है ।
जैन-सदान्वार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, श्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप है ।
इम पॉँचो श्रठोसे अदिंसाका विशेष स्थान है, अवदेप चारो अहिंसा विभिन्न
रुप हैं । कपाय और प्रमाद--असावधानीसे किसी जीवकों कष्ट पहुँचाना
या प्राणघात करना हिंसा है; इस दिंसाको न करना अहिसा है । मूलतः
हिसाके दो मेद है--द्रव्यहिसि और भावदिसा। किसीको मारे या
सतानेके भाव होना भावहिंसा और किसीको मारना या सताना द्रन्यहिसा
है । भार्वोके कछपित होनेपर प्राणघातके अमावमें भी हिंसा-दोष लगता है ।
अदिसाकी सीमा ग्रहस्थ और मुनि--साधुकी दृष्टिसे मिन्न-भिन्न है ।
गृहस्यकी हिसा चार प्रकारकी होती है--संकव्पी, आरम्मी, उद्योगी और
विरोधी । बिना अपराघके जान-वूझकर किसी जीवका वध करना सकत्पी
हिंसा है । इसका दूसरा नाम आक्रमणात्मक दिसा भी है ! प्रत्येक ग्रहस्थ-
को इस दिसाका त्याग करना आवश्यक है । सावधानी रखते हुए भी
भोजन बनाने, जल भरने, कूटने-पीसने आदि आरम्भ-जनित कार्यम
होनेवाटी दिखा आरम्भी; जीबन-निर्वाहफे दिए खेती, व्यापार, शिख आदि
कायोमे दोनेवाली हिंसा उद्योगी एवं अपनी या प्रकी राके ङण होने-
“चाठी हिंसा विरोधी कही जाती है । ये तीनों प्रकारकी हिंसाएँ' र्षणात्मक
हैं। इनका मी यथाशक्ति त्याग करना साधकके टिए आवश्यक है ।
शस्यं जियो ओर अन्यको जीने दोः इस सिद्धान्त वाक्यका खदा पालन
करना सुख-शान्तिका कारण है। राग, देप, इणा, मोह, ईष्यां आदि
विकार हिंसामें परिगणित है !
जैनधर्मक परवर्तकोने वि्ारोको अहिखक वनानेके छिए, स्याद्ाद-विचार
समन्वयका निरूपण किया ह ! यह सिद्धात आपसी मतमेद अथवा पभपात-
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