आत्म-रचना अथवा आश्रमी शिक्षा (तीसरा भाग) | Aatm-Rachna Athwa Ashrami Shiksha (Teesra Bhaag)

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Book Image : आत्म-रचना अथवा आश्रमी शिक्षा (तीसरा भाग) - Aatm-Rachna Athwa Ashrami Shiksha (Teesra Bhaag)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रवचनं ५४ हमारा प्यारा गांव हम गांवोंको अपनी सेवाका क्षेत्र वनाना चाहते हैं। थुसके लिअे हमारी सारी तैयारी ओर तालीम चल रही ह! जिसलिअे हम अपने आश्रम गांवोंमें ही खोलते है, और ग्रामवासियोंके वीच ही हमें अपना सारा जीवन विताना दै! लेकिन लोग नौकरी-घंघेके लिअे जेसे वम्वभी, कराची और कलकत्ता जाते हैं, वैसे हम गांवोंमें रहनेके लिअे नहीं जाते । वे कामघंबेके स्थानमें चाहें जितने स्परू रहें, फिर भी अपनी दृष्टि सदा जन्मभूमिकी तरफ ही रखते हैं। वे वहां अपनेको परदेवी ही मानते हैं, और चाहे जितने लंबे असं तक रहँ, फिर भी वृत्ति जसी रखते ह, मानो मुसाफिर्वाने्मे अक रातके लिअ विश्राम किया हो । वे अतना ही स्नेह-उंवंध वहां रखते हूं, जिसके बिना काम ही न चले; और अपनी कमाओमें से भुतना ही खचं करते हैं, जितना खर्च करना अनिवार्य हो। वहांके लोगोंके सुख-दुःख या सावंजनिक जीवनसे वे बिलकुल अलग रहते हैं। जिस तरह कमाओ करनेके हेतुसे गये हों, तो भी लोग अपने घंधेके क्षेत्रमें परदेशियों जैसा व्यवहार करे, जुंसमे से केवल ठते ही रहँ परन्तु वापस कुट न दे, यह्‌ वास्तचर्मे अनीति है, समाज-द्रोह्‌ रै, भसा हम लोग मानते है । तब अपने पसन्द किये हमे ग्रामक्षेत्रमें ती हम अंसा व्यवहार कर ही कंसे सकते हँ? हम वहां कमानेके लिञमे नहीं, सेवा करनेके लिभे ही जाते हैं। वहां जाकर कुछ कमाओ होने पर हम वापस घर जानैके स्वप्न नहीं देखते । सेवाक्षेत्रमें भी हमारी सोची हुआ सेवा पूरी होनेके बाद कृताथ होकर निश्चिस्ततासे घर जाकर आराम करेंगे, असी कल्पना भी हम नहीं कर सकते । मान लीजिये कि पहले हमारा विचार केवल गांवमें घर-घर चरखा शुरू करवा देनेका है। हम भाग्यवान हों और दस-पांच वपम शायद जितना कर सके, तो वया गांव छोडनेके किओ हम मुक्त हौ सकंगे ? नर्ही, वहाके लोगौने हमे अच्छा जवाव दिया, सिस कारणसे तो हमारे मनमें वहां रुकनेकी, अपना समय बढ़ा देनेकी और कार्यका विस्तार करनेकी ही भिच्छा होनी चाहिये । अभी गांवोंमें अनेक गृह-अद्योग विकसित करने बाकी हैं, अभी बेकारीका रोग गांवोंमें से गया नहीं है, अभी लोगोंने अस्पृश्योंको पुरी तरह भप- नाया नहीं है, अभी लोगोंमें ग्राम-स्वराज्यकी सुन्दर व्यवस्था करनेकी क्षमता नहीं आगी है--जिस प्रकार सोचें तो हमें मेकके वाद भेक काम सूशते जायेंगे, और जेंसे- जैसे सफलता मिलती जायगी वैसे-वैसे और नये काम निकालनेका अुत्साह चढ़ता जायगा। अंसा करते हओं देशमें हमारे विचारोंके अनुसार राज्य-परिवर्तन हो जाय और जनताके प्रतिनिधि देशका दासन-तंत्र संभाल तो? फिर तो हमारी नौकरी परी हो गओी न? फिर तो घर जाकर पैन्यनं खाति हुमे आरामकौ जिन्दगी विततानेंका हमारा हक है न ? ३ (^




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