महावीर-वाणी | Mahaveer-Vani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1 ९५ | “महावीर-वाणी के द्वारा, जेन सम्प्रदाय का ध्यान इस ओर ग्राङृष्ट होगा, श्रौर सम्प्रदाय के माननीय विद्वान्‌ यति जन, इस, महावीर के, समाज ओर गाहंस्थ्य के परमोपयोगी उपदेश, अदेश का जीर्णेद्धार श्रपने अनुयायियो के व्यवहार मे करावेगे । अन्त में, इतना ही कहना हैं कि म॑, प्रकृत्या, समन्वयवादी, सम्वादी, सादृश्यदर्शी, ऐक्यदर्शी हं, विरोधदर्शी, विवादी, वैद्र्या- न्वेषी, भेदावलोकी नही हूं । मेरा यही विर्वास हँ कि सभी लोक- हितेच्छु महापुरुषो ने उन्ही उन्ही सत्यो, तथ्यो, कल्याण-मार्गो का उपदेदा किया है, जीवने के पूवधिं मे लोक-यात्रा के साधने के लिये, म्नौर पराधं मे परमाथे-मोक्ष-निर्वणि-नि श्रेयस के साधन के लिये; भारत मे तो महर्षियो ने, महावीर स्वामी ने, बुद्ध देव नै, मुख्य मुख्य शब्द भी प्राय वही प्रयोग किये हं । 'महावीर-वाणी' के अन्तिम विवाद सूच मे, करई वादो की चर्चा कर दी है ! श्रौर उपसहार बहुत श्रच्छे शब्दो मे कर दिया है-- एवमेयाणि जस्पन्ता, वाला पडितिमाणिणो, निययानियय सन्त, भ्रयाणन्ता अवुद्धिया । अर्थात्‌, एवमेते दहि जल्पन्ति, वाला पण्डितमानिनः नियताऽनियतं सन्त, श्रजानन्तो दयवुदधय ।




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