भारतीय दर्शन | Bharatiya Darshan
श्रेणी : भारत / India
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13.64 MB
कुल पष्ठ :
578
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विप॑य-तुची १९
१६२, कार्यकारण भाव, १६२; काल, १६२, सन, १६९,
प्रतिसख्वानिरोव, १६३; अप्रतिसख्यानिरोव, १६३ ।
महाधान-सम्प्रदाय--१८ योगाचार या. विज्ञानवाद, १६३--पोगाचार
का स्वस्प, १६३, साहित्य, १६४--मंत्रयनाथ, असग, वसुवस्थु, रिथिरमति
दिदवाग, धर्मकीति, १६४, विज्ञानवाद के सिद्धान्त, १६४--विजञान-आलय-
विज्ञान, प्रवृत्तिविज्ञान, १६५, योगज प्रत्यक्ष, १६५ ।
२. साध्यसिक या दुन्यवाद, १६६--स्वरूप, १६६, नामकरण का
उद्दे्य, १६७; साहित्य, १६७--नागार्जुन, आयेंदेव, चन्द्रकीति, वुद्धपालित,
ान्तिदेव, गान्तरक्षित, १६७-६८, गून्यवाद के सिद्धान्त, १६८--दो प्रकार
का सत्य, १६८-६९, समाधि की आवश्यकता, १६९, वीद्धन्याय की चर्चा,
१७०-७१, आलोचन--आस्तिक तया वौद्ध-दर्शनो में समता, १७१, यौइ
मत के अथ पतन के कारण, १७२-७३ ।
सप्तम परिच्छेद
परमाणु, १६२;
' न्याय-ददन १७४
स्याय-दशेन की पृष्ठभूमि, १७४, ई्वर तथा आत्मा का पृथक अस्तित्व,
१७४, संशय, १७५, निर्णय, १७५, तक की आवश्यकता, १७६, तर्क प्रमाणो
की सहायक, १७७, तक का सहत््व, १७७, तर्कशास्त्र की प्राचीनता, १७७,
आधुनिक न्यायशास्त्र की उत्पत्ति--अनघिकारी वौद्धों की दशा, १७८,
गौतमसूत्र की रचना, १७९, साहित्य, १७९--त्यायसूत्र के रचयिता, १८०
न्यायशास्त्र के पदाथे, १८०, न्यायभाप्य, २८०; न्ययिवातिक, १८०,
न्यायसुचीनिवन्व, १८०, तात्पयंटीका, १८०; स्यायपरिणुद्धि, न्यायकुसुमा-
ज्जलि, न्यायसार, न्यायम्जरी, १८१, नव्यन्याय की उत्पत्ति, १८१, तत््व-
चिन्तामणि, १८९२, नव्य तथा प्राचीन न्याय में भेद, १८२, पदार्थसिरूपण,
पड
१८९--माण, प्रमाणों की संख्या, १८३, प्रभेयनिरूपण, १८३, (आत्मा,
१८४, शरीर, इन्द्रिय, १८५; अर्थ, बुद्धि, मनस, १८६, प्रवृत्ति, दोप, प्रेत्य-
भाव, फल, दुख, अपव, १८७, मोक्षप्राप्ति की प्रक्रिया, १८८, संजय,
१८८ , प्रयोजन, दृप्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, १८९; तर्क, निर्णय, वाद, जल्प,
तण्डा, हेत्वाभास, १९०, छल, जाति, निग्रहस्थान, १९१ ऐश्ान और प्रमाण,
श९१--ज्ञान के भेद, स्मरणात्मक ज्ञान, १९१, अनुभवात्मक ज्ञान, यथार्थ
एव अयथाथ ज्ञान, १९२, प्रत्यक्षप्रमाण, प्रत्यक्ष के भेद, १९२, सलिकर्ष के
User Reviews
No Reviews | Add Yours...