भारतीय दर्शन खण्ड - 2 | Bharatiya Darshan Khand-2
श्रेणी : धार्मिक / Religious, भारत / India
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20.19 MB
कुल पष्ठ :
702
श्रेणी :
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No Information available about डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन - Dr. Sarvpalli Radhakrishnan
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विपय-प्रवेक्न 15
का उवाल-सा आता है जो आगे चलकर एक विशेष स्थल पर सूचरूप में सप्लिप्त आकार
घारण करता हैं। इसके परचातू सूत्रों के भाष्यो का समय भाता है । फिर उनपर टिप्प-
शिया, टीकाए एवं सारभूत व्याख्याए आती है, जिनके कारण मौलिक सिद्धान्त में बहुत-
सा परिवर्तन, सुधार व विस्तार भी हो जाता है! भाप्य प्रश्तोत्तर के रूप में होते है, बधोकि
उपसिपदों के समय से ही इस पद्धति फो जटिल विपथ को विद रूप में समभाने का एक-
मात्र उपयुक्त साधन समका जाता रहा है। इस अकार भाष्यकार को विरोधी बिचारों
का सत्र देते हुए मौलिक सिद्धान्त के समर्थन का उत्तम अवसर प्राप्त हो जाता है । और
इस बिधि से उन्हीं विचारों की पुन स्थापना करते हुए अन्यान्य विचारों की तुलना में
उसी उत्कृप्टता सिद्ध हो जाती हे ।
4, सामान्य दिचारधाराएं
छ कोछ दर्शन कुछ मौलिक सिद्धान्तो में परस्पर एकमत है ।' वेद की प्रामाणिकता
सान्य होने से ध्वनित होता है कि इन सभी दर्शनों का विक्रास विचारधारा को एक ही
आदिम स्रोत से हुआ है। हिन्दू शिक्षको ने भूतकान के अपने पूवेपुरुषों से प्राप्त ज्ञान का
उपयोग इसलिए भी किया क्योकि इस आधार पर व्यक्त किए गए विचार सरलता से
समभ मे था सकते थे । यद्यपि अविद्या, माया, पुरुप और जीव आदि पारिमापिक जब्दों
का! प्रयोग थह प्रकट करता है 'कि विभिसन दर्शनों की भापा एक समान है, तो भी इस बात
को ध्यान मे रखना चाहिए कि उक्त पारिभापिक अव्दों का प्रयोग भिल्न-शिसन दर्णनो मे
शिन्न शिल्न अर्थों थे हुआ है । बिचारलास्त्र के इतिहाम में प्राय ऐसा होता है कि उन्ही
शब्दों और परिभाषाओं का शिल्न-शिस्न सम्प्रदाय वाले अपने शिस्त-भित्न अर्यों में प्रयोग
करते है । प्रत्येक दर्जन अपने विशीप सिद्धास्त के प्रतिपादन मे सर्वोच्च धारमिफ विवेचन
की उसी प्रचलित भाषा का प्रयोग आवश्यक परिघर्तेनों के साथ करता है । इन दर्थन-
शास्त्रो मे दा निक विज्ञान आत्मचेतर रूप में विद्यमान है । वेद में उल्लिखित अध्यात्म
अनुभवों की ताकिक आलोचना इस ग्रस्थो का विषय है । ज्ञान की यथार्धता भौर उसको
प्राप्त करते के साधन प्रत्येक दर्शन का एक मुख्य अध्याय है। प्रत्येक दा निंक योजना ज्ञान
के सम्बन्ध मे अपना स्वतन्म सिद्धान्त प्रतिषादित करती है, जो उस दर्गन के प्रतिपाद्य
विपय---अध्यात्मविद्या--का मुख्य भाग हैं । अन्त प्टि, अनुमान और वेद सव दर्णतों को
एक समान मान्य है । युक्ति और तक को अस्तदू ष्टि के अधीत ही स्थान दिया गया है!
जीवन की पूर्णता का मनुभद केवल तकें द्वारा सम्भव नहीं है। आत्मचेतन का स्थान विश्व
से सर्वोपरि नही हूँ । कोई वस्तु आत्मचेतना से थी ऊपर हैं जिसे अत दृष्टि, दिव्य जान,
घिद्वचेतना, और ईश्वरदर्णग आदि नाना सज्ञाएं दी गई है । क्योंकि हम ठी क-ठीक इसकी
व्यास्पा नहीं कर सकते, इसलिए हग इसे उच्चतर चेतना के नाम से पूकारते हैं । जब
कभी इस उच्च सत्ता की झलक हमारे सामने आती है तो हम अनुभव करते है कि महू
एक पवित्र ज्योति की सत्ता है जिसका क्षेत्र अधिक विन्तुत है। जिस प्रकार चेतना और
1 मैंने शाचीन दशनों का जतनिा ही अधिक अध्ययन किया उतना ही य॑ विज्ञानभिक्षु आदि
के इस मन्त का अनुयायी होता गया कि पउदेशन की परस्पर सिन्तता की. कि में एना ऐसे दाश-
निक ज्ञान का भण्हार हैं जिसे हम राष्ट्रीय अयवा सबगान्य दर्सन कह सकते हैं जिसकी तुलना हस उस
विशाल सानसरोबर से कर सकते हैं जो वद्चपि श्र प्राचोस काल रूपी. दिशा से अवस्थित था यो सी
जिसमे से प्रत्यक विदारक को अपने उपयोग के लिए सामग्री प्राप्त करने को अगुता मिली हुई थी ।
-मैर्सपूलर सिक्स सिस्टम्स आफ इण्डियन फिलासफी , पूस्ठ 17
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