विराटा की पद्मिनी | Virata Ki Padmini

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Book Image : विराटा की पद्मिनी - Virata Ki Padmini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विराटा की पद्िनी श्३ . ' इन शब्दों में जो प्रबलता थी, जो आदेश था, उसने कुज्जर को कतंव्यारूढ़ कर दिया । तुरन्त दोनों ओर की खिची तलवारों के बीच पहुंचकर बोला--'यहाँ पर नहीं किसी उपयुक्त स्थान पर ।' 'हुम सैयद की फौज के आदमी है । एक बोलाः--“कोई स्थान और कोई भी समय हमारे लिये उपयुक्त है ।' लोचनसिंह अप्रतिहत भाव से बोला--'सयद का बड़ा डर दिखे- लाया । न सालूम कितने सँयदों को तो हम कच्चा गठक गये हैं।. 'और हमने न-मालूम तुम सरीखे कितने लुक्कों को तो चुटकी से ही मसल दिया है ।' उनमें से एक ने चुनौती देते हुये कहा । - '... उन दोनों पर लपका । कुज्जर अपने प्राणों की जरा भी परवा न करके बीच में धँस गया । लोचन वार को रोककर खिसियाने हुये स्वर में बोलो--“कुंवर, कुंवर बचो । लोचनसिंह की जलती हुई आग शत्र,-मित्र के अन्तर को नहीं पहुचानती । _. कुमुद दो कदम आगे बढ़कर एक हाथ भाकाश की ओर जरा-सा उठाकर बोला--“मत लड़ो; अपने-अपने घर जाओ । पुण्य-पर्व है, लड़ेगा, दुःख पावेगा । दोनों मुसलमान संनिकों ने अपनी तलवार नीची कर ली । कवर ने लोचनसिंह का हाथ पकड़ लिया । वे दोनों सिपाही एक टक कुमुद की ओर देखने लगे, अतृप्त, अचल नेत्रों से, मानों अनन्त काल तक देखते रहेंगे । . कुज्जरसिंह ने हाथ के इशारे से भीड़ हटाने का प्रयत्न किया । कुमुद ने कुज्जर से कहा--राजकुमार, इनको यहाँ सें ले जाइये ।' फिर मुसलमान सँतिकों से वोली--“बआप लोग यहाँ से जायें ।' इतने में शोर--गुल सुनकर गाँव के कुछ आदमीं आं गये । मन्दिर पर मुसलमानों की उपस्थिति देखकर उन लोगो ने सैनिकों पर झगड़े का सन्देह ही नहीं, चुप चाप विदवास भी कर लिया । कई कंठों




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