दृष्टान्त - सागर भाग - 3 | Drishtant - Sagar Bhag - 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
134
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ६ 9
ओर भोग-विलास में फँंसकर मयुष्य सोचता रहता दै कि अन्त
में भजन कर लुँगा। इसी प्रकरार टालते २ सत्यु झाजाती दैश्मौर
हम तैयार नदीं हो पाते । मनुष्य यदि यदह विचार सदा रक्खे
कि मोतं आनेवाली दै तो फिर भोगों में लिप्त नहीं हो सकता
चेला यदह सुनकर चरणो पर गिरा । गुरु ने कदा उटठं अब तू
मर हुआ । यदि तू भोग में फैसता तो तू त्रह्मचय से गिर
जाता यदी तेरी धार्मिक सृत्यु होती । अब तूने स्यु की चिता
के कारण भोगों से उदासीनता दिखाई है इसलिये स्थिर हो
कर योगाभ्यास कर शौर यृत्यु के भुक्राविले को तेयार रह ।
शिक्ञा-- यद वाह् पदार्थ भुलावे में डालनेवाले है इस
उपदेश को यदि मनुष्य हृदय में रक्ले तो कभी पाप में न
सेगा । वेद् क्ते है किः--“मस्मान्त ~ शरीरम्” वस मृत्यु
को सदा याद रक्खे ! “गृहीत इव केशेषु मृत्युना धमंमा्चरेत्”
चर्थ-मानों मृल्यु वाल [ चुटिया ] पकडे हए है एेसा सममः
कर [ शीघ्र } धमं को करे।
ईश्वरीय न्याय
एक दिन मार्ग से एक महात्मा अपने शिष्य समेत जा
रहे थे | गुरु को तो: इधर उघर की कोई बात पसन्द न थी
थोड़ा बोलना, साधारण, नेतिक, 'मावश्यकीय काय करे
योगाभ्यासं करना परन्तु चेला चपल श्रा । उसे इधर उधर
की बातों में भी वड़ा आनन्द आता था । चलते मागमे
देखते क्या हैं. कि एक धीमर नदी में जाल डाले हुए है ।
वेला यह देखकर खड़ा हो गया और धीमर को “अहिंसा
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