साहित्य - सर्जना | Sahitya Sarjana

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Sahitya Sarjana by इलाचंद्र जोशी - Ilachandra Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कला श्र नीति १५ के लिए हमें च्रथनीति कौ आवश्यकता दोती है । प्राणपय कोष्रकी पुष्टि के लिए घमनीति की, मर्नोमथ कोय के लिट कामनीति की, श्रौर विज्ञानमय कोष के लिये वैज्ञानिक नीति को | पर ज इन सत्र कोषो की स्थिति को पार करके मनुष्य आनन्द्सय कोष के द्वार खटखटाता है. तो वहाँ सब प्रकार की नीति तथा. नियमों के गट्टर को फेंककर भीतर प्रवेश करना पड़ता हे । वहीँ यदि नीति किसी उपाय से घुस भी गई, तो उसे इच्छा के शासन में वेष बदलकर दुचके हुए बैठना पड़ता है ! लैकिक तथा प्राकृतिक बंधनों की श्रवज्ञा करनेवाज्ञी इस सर्वजयी इच्छा मद्दारानी के श्रानस्द्सय द्रवार में नैतिक शासन का काम नही हैं, वइ। सहज प्रम का कारोबार है । वहा दस प्रेम के बंधन में बघकर पाप श्र पुश्य भाई-भाई की तरह एक दूसरे के गले मिलते हैं । नीति १ इस विपुल सुष्टि के मून में क्या नीति है ! कया प्रयोजन हैं कया तत्व है १ प्रतिदिन असख्य प्राणी विनाश को प्राप्त हो रहे हैं, ततख्य प्राण उत्भन्न होते जाते हैं, उपपन्न होकर फिर आपने प्रेम धृणा, सुख-दुख) देष रुलाई का चक पूरा करके अनन्त में वितीन हो रहे हैं । इस समस्त चक्र का झथे ह कया है ! श्रर्थ कुछ भी नदी, यह केवल भूमा के सहज श्मानन्द्‌ कीलीलादहै। विश्व की इस अनन्त सुष्टि की तरह कला भी श्रानन्द का दही प्रकाश हैं । उसके भीतर नीति, तत्व अथवा शिक्षा का स्थान नहीं | उसके श्रलौंकिक मायाचक्र से हमारे हुदूय की तत्री आनन्द की ककार से बज उठती है, यही हमारे लिये परम लाभ हैं । उच्च ाग की कला के भीतर किसी तत्व की खोल करना सौंदर्य दंवी के , मन्दिर को कलुषित करना है | इन्दी-साहित्य के वर्तमान समालीचक न तक कला की किसी रचना में कोई तत्व नदी पाते, तब तक उक्षगी श्रेष्ठता स्वीकार करने में श्रपना अपमान समझते हैं । जिन रचनाओओ की वे प्रशसा करते हैं, उनकी विशेषताः के सम्बन्ध में यदि. उनसे पूछा जाय, तो वे उत्तर [35] । ॥




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