जैनदर्शनसार भाग - 3 | Jaindarshansaar Bhag - 3

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Book Image : जैनदर्शनसार भाग - 3  - Jaindarshansaar Bhag - 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रकाशकीय भारत की राजधानी दिल्ली कं समीपस्थ ओद्योगिक नगरी गाजियाबाद में परमपूज्य आचार्य 108 श्री धर्मभूषण जी महाराज का पावन वर्षायोग हमारे शतसहस्नपुण्यो का अमृत फल रहा। अपनी सैद्धान्तिक दृढता ओर निर्दोष तपश्चर्या के पालन कं लिए विख्यात आचार्य श्री कं चरण सामीप्य मे आने कं पश्चात्‌ हमने देखा सघस्थ ब्रह्मचारी गण कतिपय डायरियो मे कुछ लिखते रहते है। एक दिन हमने पूछा त्र जी आप रात दिन क्या लिखा करते है। त्र जी बोले- पूज्य आचार्य श्री सदैव ज्ञान पिपासु एव स्वाध्याय प्रेमी रहे है। कुछ डाँयरियाँ तो इनके द्वारा किए गए सकलन की है एव कुछ हमने गुरुदेव के प्रवचनों को सग्रहीत किया है जिनको हम व्यवस्थित कर रहे है इनसे हमारा ज्ञानोपार्जन भी ही रहा है साथ ही आचार्य श्री कं सघ कं विशेष नियमो ओर सिद्धान्तो को लिख देने से परम्परा मे भी इनका पालन होता रहेगा। हमे भी लगा ब्रह्मचारी जी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे है। आचार्य श्री कं प्रवचनो ओर सघ के सिद्धान्तो को तो स्थाई रूप से लिखित करके रखना ही चाहिए हम सबने बैठकर सर्वप्रथम निर्णय लिया कि यदि इन मब प्रवचनो/सकलनो को सुव्यस्थित कराकं जैन समाज, गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित कर दिया जाय तो यह समाज कं लिए बहुत उपयोगी रहेगा तथा समाज कौ धरोहर बन जाएगे ये ग्रन्थ। हमने पूज्य आचार्यश्री जी से अपनी भावना अभिव्यक्त की, कु सकोच के साथ उन्होने यह आदेश देते हुए स्वीकृति दी “ भाई देखो मै सदैव नाम ख्याति से दूर रहा हूँ प्रकाशन ऐसा हो जिससे हमारी परम्परा व सघ कौ गरिमा यथावत्‌ रहे कही भी एेसा न लगे हम अपने नाम के लिए आज्ञा दे रहे है।” हमने उन्हे पूर्ण आश्वस्त किया। अब समस्या यह थी कि यह लगभग 2000 पृष्ठो का विशाल, अत्यधिक श्रम साध्य कार्य सैद्धान्तिक एव प्रमाणिकता सम्पनन कैसे हो क्योकि यह कार्य जैनदर्शन हिन्दी सस्कृत के अध्येता कं साथ जैनत्व एव गुरुओ कं लिए समर्पित विद्वानो कं बिना सभव नही हो सकंगा। हमे भी समाधान मिल गया। इसकं लिए हमने हमारे नगर मे विद्यमान डो नरेनद्रकमार जेन ओर डो° नीलम जैन से अनुराध किया कि वे अपना अमूल्य समय हमे देकर समाज कौ ग्रथ प्रकाशन कौ प्रबल भावना को साकार कर कृतार्थं करे! दोनों विद्वानो ने सहर्ष अपनी सहज स्वीकृति प्रदान की। हम दोनो विद्रानो के प्रति सर्वप्रथम आभार प्रकट करते है जिन्होने निःस्वार्थं भाव एव अत्यधिक निष्ठा से इस महनीय कार्य को सम्पादित कर ग्रथ को श्लाघनीय स्वरूप प्रदान किया। एतदर्थं हम दोनो निःस्पृह विद्वद्रत्नो कं अत्यन्त-कृतज्ञ एव उनके प्रति श्रद्धावनत हे। [4 ।




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