कलात्मक विनोद | Kalatmak Vinod
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
184
श्रेणी :
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हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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इदं केचुली ही उत्तरीयका कायं कर रही थी । हम्यॉमिंके श्रमल-धवल' प्राचीर काले
पड़ गए थे, दीवारोके फौकमेसे वृणवलि्योँ निकल पड़ी थीं, चन्द्रकिरणे भी उन्हें
पूववत् उद् मासित नहीं कर सकती थं । जिन उदयान-लताश्रोसे बिलासिनियाँ श्रति
सदय भावस पुष्प चयन करती थीं उन्दींको वानरोंने बुरी तरदहसे छिनन-मिन्न कर डाला
था; श्रद्दालिकाशओंके गवान्न रातमें न तो मांगल्य प्रदीपसे श्रौर न दिनम ग्रह-
लददिमयोकी मुखकांतिसे ही उद्धासित हो रहे थे, मानों उनकी लज्जा एकनेके लिये
ही मकड़ियोंने उनपर जाला तान दिया था ! नदियोंके सैकतॉपर पूजन-सामग्री नहीं
पड़ती थी, स्नानकी चहल-पहल जाती रही थी, उपान्त देशके वेतस-लता-कुञ्ज
सूने पड़ गए ये ( रघुवंश १६-११-२१ ) । ऐसे ही विध्वस्त भारतवर्षकों शुप्त-
सम्नाटोंने नया जीवन दिया | कालिदासके ही शब्दोंमें कहा जाय तो. सम्नाट्के नियुक्त
शिल्पिरयोन प्रचुर उपकर्णौसे उस दु्टशाग्रस्त नगरीको इस प्रकार नयी बना दिया
से निटाघ्र-ग्लपित धरित्रीको प्रचुर जल-वर्षणसे मेघगण !
तां शिल्पिसंधाः प्रभुणा नियुक्तास्तथागतां संभृतसाधनत्वात् ।
पुरं नवीचक्रुरपां विसग॑त् मेघा निदाघम्लपितामिवोरवंम् ॥
८ रघुवंश १६-२८ )
गुप्त सम्रारोके इस परक्रमको भारतीय जनताने मक्ति श्रौर प्रेमसे' देखा ।
शताब्दियाँ श्रौर सहस्राग्टक बीत गये पर श्राज भी भारतीय जीवनमें गुप्त सम्राट
घुले हुए, हैं । केवल इसलिये नहीं कि बिक्रमादित्य श्रौर कालिटासकी कहानियाँ भार-
तीय लोक-जीवनका श्रविच्छेग् श्रंग बन गई हैं, बल्कि इसलिये कि श्राजके भारतीय
धर्म, समाज, ब्राचार-विचार,क्रिया-काणड ,त्रादिमें सर्वत्र गुप्तकालीन साहित्यकी श्रमिट
छाप है । जो पुराण श्रौर स्टतियाँ तथा शास्त्र निस्संटिग्ध रूपसे श्राज प्रमाण माने
जाते हैं वे श्रन्तिम तौरपर गुप्त-कालमें रथ्वित हुए. थे, वे श्राज भी भारतवैका चित्त
हरण किए, हुए हैँ, जो शास्त्र उन दिनों प्रतिष्ठित हुए थे वे श्राज भी भारतीय
चिन्ता-खलोतको बहुत कुछ गति दे रहे हैं । आज युप्त-कालके पूर्ववत शास्त्र श्रौर
साहित्यकों भारतवर्ष केवल श्रद्धा श्रौर भक्तिसे पूजा मर करता हे, व्यवहारके लिये
उसने इस कालके निर्धारित प्रन्थोको ही स्वीकार किया है । गुप्त-युगके बाद भारतीय
मनीपाकी मौलिकता भोथी हो गईं । टीकां च्रौर निचर्धोका युग शुरू हो गया |
टीकाश्नोकी टीका च्रोर उसकी मी टीका, इस प्रकार मूलग्रंथकी टीकाश्रॉंकी छुः-छुः
श्राठ-झाठ पुश्ततक चलती रहीं । श्राज जब हम किंसो वरिषयकी श्रालोचना करते
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