तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा | Tirtharth Mahvir Aur Unki Acharya Prampra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कृष्णा अमावस्या, वीर-निर्वाण संवत्‌ २५०२, दिनाङ्क १२३ नवम्बर १९७५ तक पुरे एक वषं मनायी जावेगी । यह्‌ मङ्गल-प्रसङ्ध भो उक्त ्रन्थ-निर्माणके किए उत्प्रेरके रहा । अतः अखिल मारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्रत्परिषद्ने पचि वषं पूवं इस महाच्‌ दुलंभ अवसरपर तीर्थंकर महावीर और उनके दर्शनसे सम्बन्धित विशाल एवं तथ्यपु्ण ग्रन्थके निर्माण और प्रकादानका निरचय तथा संकल्प किया । परिषदुने इसके हेतु अनेक बेठकें कीं और उनमें ग्रन्थकी रूपरेखापर गम्भीरत्तासे कहापोह किया । फलत: ग्रन्थका नाम 'तीथंडूर महावीर और उनकी आचायं- परम्परा' निर्णीत हुआ और लेखनका दायित्व विद्वत्परिषदुके तत्कालीन अध्यक्ष, अनेक ग्रन्थोंके लेखक, मूर्घन्य-मनीषी, आचाय॑ं नेमिचन्द्र शास्त्री आरा (बिहार) ने सहषं स्वीकार किया । आचाय॑ शास्त्रीने पाँच वर्ष लगातार कठोर परिश्रम, अद्भूत लगन ओौर असाधारण अध्यवसायसे उसे चार खण्डों तथा लगभग २००० (दो हजार) पृष्ठोंमें सूजित करके ३० सितम्बर १९७२ को विदरत्परिषदको प्रकाश- नाथं दे दिया ) विचार हुआ कि समग्र ग्रन्थका एक बार वाचन कर छिया जाय । आचायं शास्त्री स्या्ाद महाविद्ययाख्यकी प्रबन्धकारिणीको वै ठकमे सम्मिलतत हौनेके लिए ३० सितम्बर १९७३ को वाराणसी पघारे थे । ओर अपने साथ उक्त ग्रन्थके चारों खण्ड ठेते आये थे । अतः १ अक्तूवर १९७३ से १५ अवतुबर १९७३ तक १५ दिन वाराणसीमें ही प्रतिदिन प्रायः तीन समय त्तीन-तीन घण्टे ग्रन्थका वाचन हुआ । वाचनमें आचायं शास्त्रीके भतिरिक्त सिद्धान्ताचायं श्रद्धेय पण्डित केलाशचन्द्रजी शास्त्री पुर्वे प्रधानाचायं स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, डॉक्टर ज्योतिप्रसादजी लखनऊ और हम सम्मिलित रहते थे । आचायं शास्त्री स्वयं वाचते थे और हमलोग सुनते थे । यथावसर आवदयकता पड़ने पर सुझाव भी दे दिये जाते थे । यहु वाचन १५ अक्तूबर १९७३ को समाप्त हुआ और १६ अक्तूबर १९७३ को पग्रन्थका पहला भाग 'तीथेंडूर महावीर और उनकी देशना' ' प्रकाहाना्थ महावीर प्रेसकों दे दिया गया, जो लगभग ९, माहमें छपकर तैयार हो सका । ग्रन्थ-परिचय इस विशाल एवं असामान्य ग्रन्थका यह संक्षेपमे परिचय दिया जाता है, जिससे ग्रन्थ कितना महत्वपुणं है गौर लेखकने उसके साथ कितना अमेय परि- श्रम किया है, यहु सहजम ज्ञात्त हो सकेगा । इस ग्रन्थके चार खण्ड ह--१. तीथंङ्कुर महावीर ओर उनको देशना, १४ : तीर्थकर महावीर भौर उनकी आचार्यपरम्परा




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