आदिकवि सारलादास कृत ओडिया महाभारत आदिपर्व | Oria Mahabharat - Adi Parv
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
378
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री हरिश्चन्द्र - Shri Harishchandra
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दुःसाहसिक परिवर्तन केवल प्रशंतनीय नहीं, वह केवल उच्चकोटि की सृजन प्रतिभा के निकट ही संभव हो सकती है।
द्रौपदी : एक आभ्यन्तरीण पत्ती ग्राम में, कृपक के परिवेश में, नगर और अभिजात से बहुत दूर सारला बड़े हुए थे।
यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य होता है कि इस कृषक कवि की एकदम सूक्ष्म, प्रतिभा मानवीय ओर दैवीय सौन्दर्य के प्रति भी
कितनी तीव्र ओर सचेतन थी और सामाजिक श्रेणी में बहुत ऊँचाई में वात करने वाले नर-नारी के चरित्र के सम्पर्क में भी
उनकी कितनी गम्भीर अन्तर्दृष्टि थी । महामारत की नायिका द्रौपदी ही इसका प्रकृष्ट उदाहरण है।
भारत के तरुण राजकुमार द्रौपदी के सुदूर ख्यात रूप के लोभ से पांचाल नगर मे समवेत हृए ओर द्रौपदी के मु को
देखने के लिए उत्साहित थे। इसी समय राजकुमारी एक ढकी हुई डोली में सभा स्थल में लायी गयी। वहाँ सभा अत्यन्त उत्तेजित
होकर चीत्कार करने लगी। जरासन्ध ने साहसपूर्वक द्रोपदी के भाई धृष्टद्युम्न से कहा, “हे धृष्टद्युम्न ! सुनो, मन की बात कोई
कह नहीं पा रहा है। तुम अपनी बहन को डोली में छिपाकर रखे हो, उसे तो किसी ने देखा नहीं, यै राजा किसके लिए लक्ष्य
भेद करेगे। उसे बाहर करो। इस समवेत राज-वर्ग को शान्त करने की यही एकमात्र उपाय हैं /”
यढ सुनकर राजा द्रपद ने कन्या को डोली से बाहर निकालकर सबके सामने आकर खड़े होने का आदेश दिया।
केशिनी और जयसेनी नामक दो सखियो का हाथ पकड़कर द्रौपदी प्रथम बार समस्त तरुण राजा ओर राजकुमारों के सम्मुख
विराजिता हुई । उन सवने द्रोपदी की सुन्दरता की कथा सुनी धी, किन्तु यह कौन रूप ! उदुभिननं योवना द्रौपदी का सूप, शरीर
ओर अगो आदि की अलोक-सामान्य सुपमा देकर सहसा अनेक को मानसिक विभ्रम हुआ । निर्खर देश कं राजा गणपति कह
उठे, इस प्रकार की एक कन्या के दारा इस द्रुपद राजा का समग्र कुल ही धन्य हुंजा। उनके कुचित सधन केश पर पुष्प के
बिना ही भ्रमर विहार करते हे) पसका ललाट आप्रपल्लव की तरह दिलाई देता है । अधर वन्दूक पुष्प की तरह ओर ओष्ठ
बिम्बः फल की तरह ओर दात दाडिम कं वीज की तरह दिखाई देते ै। अर्द्धचन्द्र लल्ताट के नीचे अपूर्वं ोपावतियुक्त श्रूलता
खचित है। उसके इपत रक्तिम दोनो नेत्रों को देखने पर सभी पुरुष अचेत हो जार्फैगे । वक्र नयन से देखने पर हदय छिद्रित हो
जाएगा। संसारजन की रक्षा के लिए ही उसने ट्रप्टि को नीचे कर लिया है। यह जब सभा की ओर किचित मात्र देखेगी तो
अनेक पुरुष-हत्या का दोप इसे लगेगा। यह सुज्ञानी नारी धर्म-चारिणी पाप के भय से दृष्टि फेर ली है। हे धर्म देवता ' यह
सभा की ओर न देखे। हम लोग यहाँ अच्छे आये । विना विपत्ति के यहाँ से लौट जायें । यदि वत्र पाषाण भी हो तो वह इसके
कटाक्ष से फट जाएगा ।.. वह ज्ञानवती सुन्दरी जब बोलेगी तो मत्तपिक इसकी बात सुनकर आप्रवन को छोड़ देगी। जिस पुरुष
के सामने यह बात वोलेगी क्या वह शरीर धारण कर सकेगा ? दामन के राजा विना पूछे न रह सके-इस राजकुमारी की देह
पर अलकार क्यों नहीं है ” दुर्योधन ने उत्तर दिण, “तुम पागल हो गये क्या ? यह बात समझ नहीं पाते * इस प्रकार की
कोमलागी अलकार भार कैसे मह पाएगी ?” कर्ण ने कहा, “इस प्रकार की सुन्दरी के लिए सोने के अलकार की क्या
आवश्यकता * उसका अपना सौन्दर्य सोने से हजार गुना अधिक मूल्यवान है ।”
छदुमवेशी अर्जुन ने लक्ष्य भेद करके इस स्वप्न सुन्दरी को प्राप्त किया और पाण्डव भाइयों के साथ पाचाल नगर से
बाहर अवस्थित कुम्हारशाला को ले गया, जर्हौ जननी कुन्ती उद्विग्न होकर उन लोगो की अपेक्षा कर रही थी । वर्ह विलास
लालिता सुन्दरी उस राजकुमारी बाना को वृद्धा सास ने, अपने पुत्रों की तरह, कुम्हारशाला की राख के ऊपर सोने का आदेश
दिया राजप्रासाद के विलास ते कुम्ारशाला की रा-शय्या तक यह जिस प्रकार हटात् ओर असम्भव परिवर्तन हुआ, इस प्रकार
के अवस्था-परिवर्तन का अनुभव किएु बिना, हम द्रौपदी को रक्त-मांस का मनुष्य नहीं कह सकत थे । सारता की लेखनी में यह
स्वाभाविक नारी हताशा से गे पडती है । रा को देखकर द्रौपदी विकल होकर बोली कि हे देव ! मेरे भाग्य में यही लिखे थे।
हंस के पंख कं समान मुलायम मुक्ता रल-शोभित शय्या पर सोती थी ओर सैकञ्ञे दासि्यौ सेवा करती थीं । सुसज्जा पर रेशमी
वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर कपूर का धूर्ण छिडका जाता था। उसके ऊपर मेरा शरीर पड़ता था। अब मैं राख के ऊपर कैसे
सोऊंगी। मैं पांचाल राजा की दुलारी थी। देवपुरुष ने यहां लाकर ऐसा कर दियः । सास कुन्ती ने बहू के अंगांगी भाव को
देखकर कहा कि तुमने जो अर्जित किया है, उसका भोग करो। संसार में सम्पत्ति विपत्ति अपने कर्म का फल होता है। यह
देखकर भीमसेन गरज उठे और आंख तरेरकर बोले कि द्रौपदी ! क्या चाहती हो ? सोती क्यों नहीं ? उसे देखकर द्रपद कुमारी
14 (¬ आदि पर्व
User Reviews
No Reviews | Add Yours...