आदमी | Aadami

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Aadami  by सतीश कुमार - Satish Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“आदमी ~ दर - आदमी : १६ धन्यवाद देते थे । कभी-कभी कुछ कटिनादर्या श्रवद्य श्रायीं 1 कभी-कभी खाना भी नहीं मिला । एक वार तो ईरान में तीस घंटे तक विना भोजन के रहना पड़ा, पर यह सारी मुसीवते नगण्य थीं । श्रमर थोड़ा बहुत कष्ट न श्राये तो यात्रा का भ्रानन्दही क्या? श्रगर कष्ट से ही डर होता तो विश्व-यात्रा पर निकलते ही क्यों ह परन्तु विश्व-्याशा की कल्पना करते हुए कठिनाइयों श्रौर कष्टो के वारे मे जो कल्पना होती थी वसी कठिनाइयां नहीं श्रायीं । त्रसलियत तो यह है कि जब कठिनाई को स्वीकर करने फे लिए मन तयारी जाये तव कठिनाई कठिन नहीं रह जाती है । 5 इस प्रकार भारत का यह मनस्वी संत पुरी विद्व-यात्रामे हमारे साथ रहा । शाकाहारी होने के कारण भी कुछ दिवकतें श्रायी । कुछ स्थान तो ऐसे मिले जहाँ पर लोग यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि बिना मांस के भी जिन्दा रहा जा सकता है । ईरान में वो लोग वड़े ताज्जुव के साथ हमे कहा करते थे कि दुमा, गत्ला-व-गत्ला खुर्दन ।' यानी श्राप श्रनाज को श्रनाज के साथ कंसे खाते हैं ? पर जसा कि विनोवा ने कहा था यह शाकाहार श्रीर पैसा-मुक्ति निश्चय ही हमारे लिए गदा भ्ौर चक्र ही साबित हुए । उलागर सिह विललगा 3 १ जून, १६६३ को हम दिल्‍ली से तरा पर रवाना हुए झौर ३ जुलाई को हमने भारत की सरहद छोड़कर पारिस्तान में प्रयेश




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