विचार विमर्ष | Vichar Vimarsh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७ ) भावना के सतत्र में रहस्यवादी कवि अभिव्यक्त करता है । परंतु अद्रेत की पूणं भावना की प्रतिष्ठा के लिये दैत का परोक्त रूप से समथन हो जाता है। गेय ओौर ध्येय की साथ॑कता ज्ञाता और ध्याता की उपस्थिति से ही हो सकती है। अतएव यद्यपि इन उभय पक्षों का ऐक्य रहस्यवाद की रागात्मिका प्रवृत्ति का चरम लक्ष्य है, तथापि उपासक और उपास्य, उभय पक्षों को आरंभ में ./ झंवेश्य मानना पढ़ता है । यह द्वेत उपासना अथवा रहस्यमयी भावना के स्फुरण का पहला सोपान है और अद्लेत की रागात्मिका प्रतिष्ठा उसका अंतिम स्वरूप है । इस सुद विश्लेषण तक न पहुँचने वाले व्यक्तियों को इसीलिये उपयुक्त द्वैत मे अद्वैत चौर खद्धेत में दवेत के सिद्धांत मे विरोध दिखाई पड़ता है । वास्तव मे रहस्यवादी मानता है कि दैवी स्फूर्तिं का कोई-न- कोई स्फुलिंग जीव के निर्माण में निहित है। उसी स्फुलिंग द्वारा-- उसी दैवांश द्वारा--वह उस अखंड सत्ता की अन्लुभूति कर सकता है। रहस्यवादी का यह विश्वास है कि जिस प्रकार वुद्धि हारा मयुष्य भौतिक पदार्थो का निरूपण करता है, उसी प्रकार अध्यात्म भावना हारा मनुष्य रहस्यमय अखंड सत्ता का अनुभव कर सकता है । परंतु बुद्धि और भावना के क्तेत्र भिन्न-भिन्न देँ । एक दूसरे के कायं मे हस्तक्तेप नदीं कर सकते । जिस प्रकार बुद्धि के व्यवसाय मे, ताकिक विश्लेषण मे, भाववेश से काम नदी चलता; उसी प्रकार भावना के क्षेत्र में बुद्धि का प्रयोग व्यर्थ है} रहस्यवादी उसे मूखं ससमाता है जो अध्यात्म निरूपण में बुद्धि का प्रयोग करता है । यह करनी का भेद है, नाहीं जुद्धिविचार बुद्धि छोड़ करनी करौ, तो पाद्ओो कट सार+ --कवीर 8 इस पद मे * करनी ' शब्द में ज्ञान-कांड श्रौर क्म॑-कांड की सापेक्तिक .विवेचना नही है | ` करनी शब्द वेदोक्त कर्मकांड के लिये नहीं श्राया 11




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