जैन भारती | Jain Bharati

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Jain Bharati by गुनभद्र जैन - Gunbhadra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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9 जेन-मारती & ्गलाद्रश्‌ । कारके आरम्भे भगवानकी जय वोरखिये, अन्तःकरणके द कपाटोंको सदज ही खोखियि । प्रत्येक हृदयोंमें सतत जगदीदा ही रहने लगें, उनके लिये सद्धक्तिकी नदियां सरस बहने लगें। शाख्र जिस सांद्रतमपर सूथंदाशिकी भी नहीं 'चठती मती, हे शारदे ! पलमसात्रमें तू ही उसे संहारती । ' जिनराज-निम॑ल-मृदु सरोवरकी अरौकिक पदिनी, होता न किसका वित्तदर्षित देख तव शोभा घनी युर जो साधु सदपदेश रूपी मेव घरसाते यहाँ , जो भव्य रूपी चातकोंको तुष्ट करते ह यदा ।




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