वन - श्री | Van - Shri

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Van - Shri by विश्वनाथ प्रसाद मिश्र - Vishwanath Prasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चन-न्नी कूलर किन्तु उसी सुनसान द्वीप सें, उसी रेत में--भूभले में; जहो नाच कर लर हवा की गरमी से जाती जल मेँ ; झंडे पर बवेंठे सेते हैं. बहुत टिटिद्दरी के जोड़े ; गरमी में गरमी देते हैं, वेठे पॉव - पंख तोड़े ; सादा जव झंडे को सेती, चौकीदारी करता सर ; चिल्ला कर सचेत कर देता जब कोई भी होता डर ; इसी तरह वारी बारी से चारा चुगते सेते है; पंच - झाम्नि को ताप प्रेस से तप पूरा कर लेते है; अब हठ-योग हुआ हैं पूरा; मिला तपस्या का भी फल ; मोतती-से झंडे सब टूटे ; उनसे आये लाल निकल ; सुन्दर बच्चे लगे दौड़ने तात-मात के पीछे लग ; उन भूखों को लगे चुगाने ये वेचारे भी जग जग; जब तक नभ में बादल छाये ; खूब लगे उड़ने ये भी ; सछली खुद ही लगे पकड़ने , डूब डूब पानी में भी ; दिनकर ने चाहा पी डाल उड़ा समी परथ्वी का जल) चाहा पूणे-पयोधि पान कर दिखलाना कुंभज-सा वल ; इसी गवे म लगे सुखने जीवन-खरोत वनस्पति का , सुलस गई सारी हरियाली, सुरमा गई नवल लतिका ; खोले हुए सिवार-बाल को , रित कलेवर धीमी चाल ; सरिता सरितापति से सिल कर रो रो लगी बताने दाल- १ लगरम था




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