वन - श्री | Van - Shri
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
144
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चन-न्नी
कूलर
किन्तु उसी सुनसान द्वीप सें, उसी रेत में--भूभले में;
जहो नाच कर लर हवा की गरमी से जाती जल मेँ ;
झंडे पर बवेंठे सेते हैं. बहुत टिटिद्दरी के जोड़े ;
गरमी में गरमी देते हैं, वेठे पॉव - पंख तोड़े ;
सादा जव झंडे को सेती, चौकीदारी करता सर ;
चिल्ला कर सचेत कर देता जब कोई भी होता डर ;
इसी तरह वारी बारी से चारा चुगते सेते है;
पंच - झाम्नि को ताप प्रेस से तप पूरा कर लेते है;
अब हठ-योग हुआ हैं पूरा; मिला तपस्या का भी फल ;
मोतती-से झंडे सब टूटे ; उनसे आये लाल निकल ;
सुन्दर बच्चे लगे दौड़ने तात-मात के पीछे लग ;
उन भूखों को लगे चुगाने ये वेचारे भी जग जग;
जब तक नभ में बादल छाये ; खूब लगे उड़ने ये भी ;
सछली खुद ही लगे पकड़ने , डूब डूब पानी में भी ;
दिनकर ने चाहा पी डाल उड़ा समी परथ्वी का जल)
चाहा पूणे-पयोधि पान कर दिखलाना कुंभज-सा वल ;
इसी गवे म लगे सुखने जीवन-खरोत वनस्पति का ,
सुलस गई सारी हरियाली, सुरमा गई नवल लतिका ;
खोले हुए सिवार-बाल को , रित कलेवर धीमी चाल ;
सरिता सरितापति से सिल कर रो रो लगी बताने दाल-
१ लगरम था
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