अस्तित्ववाद में गांधीवाद तक | Astitvavad Me Gandhivad Tak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निराशा का कारण ' वैचारिक सफ़ट / 13 परिवेश से जोड़ती है, इनका निरोध (सहार नहीं ) किए बिना ज्ञान सभव नही होता ज्ञान की प्रक्रिया का अध्ययन करने वाले दानिकों ने एक स्वर से माना है कि ज्ञान निर्षेधात्मक होता है। सतही छग से सोचने वाले इस कथन पर भी आपत्ति कर सकते है । किन्तु यह सत्य है । जब कोई किसी चीज को पहुचानता है, उसेनामदेतादहैतो उसके कथन का अभिप्राय होता है “यह मैं नहीं है” वहू वस्तुओं को अपने से भिसत देखता है तभी उसे उनका ज्ञान होता है। जब बह कहता है कि यह मेज या कुर्सी है तो वह यह घोषणा करता है कि मैं मेज या कुर्सी नही हू । यदि आदमी के पास नही कहने की शक्ति नहीं है तो वह किसी वस्तु को या अपने को जान ही नहीं सकता । सात्रं ने इसे आदमी की चेतना का सबसे बडा गुण माना है और इसे 'नयिगनेस' कहा है, बल्कि उसने इस शक्ति को ही सानव-चेतसा कहा है । सात्रे हो मही, सभी अस्तित्ववादी और आदंशंवादी पश्चिमी दार्शनिकों ने निषेध की शक्ति को ज्ञान माना है। हमारे प्राचीन दार्यतिकों की स्थिति भी इससे भिन्न नही है। उन्होंने भी ज्ञान को निति नेतिः कहकर ही व्याख्याधित्त किया है । ज्ञान की प्रक्रिया या 'फिनामिनोलाजी' के उपर्युक्त दो सुनो का उल्लेख विचार-प्रक्रिया को स्पष्ट करने के उद्देश्य से किया गया । विचार ज्ञान के बाद की दूसरी अवस्था है । जब हम अपने को, अपनी दुनिया या परिवेश को जान लेते है तो इस दुनिया को अपनी इच्छा के अनुसार बदलने की कोशिश करते हैं । यहू विचार की प्रक्रिया है। हमारा समाज, हमारी राजनेतिक व्यवस्था, अथंव्यवस्था, धामिक व्यवस्था, यह सब हमारा परिवेश है, हमारी दुनिया है । आदमो इसे बदलने के लिए, इसे अपने अनुकूल बनाने के लिए जो संकल्प करता है, जो' लक्ष्य चुनता है, जो योजना मन मे तैयार करता है, यह सब विचार है। इसके लिए जरूरी है अपनी इच्छा-शक्ति का प्रयोग । इच्छा-शक्ति को भी पश्चिम और पूतं के सभी दार्शनिकों ने प्रमुख शक्ति माना है । हीगेल ने इसे 'स्पिरिट' कहा, नीत्छे ने 'विल टु पावर' । यह मतभेद तो दा्शंमिकों में रहा कि इच्छा का प्रेरक तस्व क्या होता है । फ़ायड ने प्रसुप्त कामवासनाभों को इसका प्रेरक कहा, एडलर ने हीनता की भावना को, यूग ने जिजीबिषा को, काट ने नैतिक बोध को, हीगेल ते निरपेक्ष सत्ता को, किकगादं ने उदहाम अवेगो को और सार ने अभाव या लंक को । भारतीय दाशंनिकों मे भी किसी ने अमरत्व या मुक्ति को, किसी ने दुखो- टौ के निर्वाण अथवा कंवल्य को और किसी ने महुज सुख या आनंद को इच्छा का प्रेरक कहा । किस्तु इच्छा के प्रयोग को सबने मानव' जीवन का प्रमुख लक्षण माना । हमारे दार्शनिको ने आत्मा के जो लक्षण गिंनाए है उनमे इच्छा सबसे पहुले दै भौर बाद में हैं प्रयत्न राग द्रष सुख-दुख मौर शान आश्वय की बात है कि




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