पौराणिक धर्म एवं समाज | Pairanik Dharm Avam Samaj

Pairanik Dharm Avam Samaj  by सिद्धेश्वरी नारायण राय - Siddeshwari Narayan Rai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय-प्रवेश पुराण-परिचय क्र पौराणिक श्रौर वैदिक शैलियों की तुलना करते समय यह नहीं भूलना चांहिये कि परिवत्तित परिस्थितियों में पुराण -संरचना का कायें वेदों की श्रपेक्षा प्राय दुष्कर था । पौराणिकों का मूल उददद्य भ्रपने ग्रत्थों में उच्च स्तर के साहित्य का परिचय देना नहीं था । इसके विपरीत उन्हें उच्च कोटि के धमंमुलक श्रौर दर्शनसुलक तत्त्वों को सरल एवं सुग्राह्म दली में उतारनां था । इसमें संदेह नहीं कि इस प्रकार की छेली को श्रपनाने के कारण जनसाधारणा झ्ौर वेदोक्ति का मध्यवर्ती व्यवधान एक विशेष सीमा तक दूर हुआ होगा तथा परिसामतः पुराण-संरचना को उत्तरोत्तर विकसित होने के लिये सुयोग भी मिला होगा । पुरारा-संरचना का सूत्रपात उक्त झ्राख्यानों के समावेश से हुमा यह निद्चित्‌ है कि इन श्राख्यानों में उस भारतीय प्रवृत्ति का सल्लिधान है जो जाज॑ डब्ल्यू काक्स की समीक्षा के शभ्रनुसार सदुद्देश्यपूरणं तथा वैज्ञानिक गवेषणा की श्पेक्षा रखता है ै । प्रस्तुत प्रसंग में विचारणीय यह है कि पौराखिक श्राख्यानों को किस प्रकार की परिभाषा-परिधि में रखा जाय ? इस सन्दभं में पौराणिक भ्राख्यानों की विदाद एवं गंभीर व्याख्या करते हुये आचायें बलदेव उपाध्याय ने श्रीघरीय भाष्य के एक लोक का उल्लेख किया है । इस इलोक को प्राचीन माना गया है । इसके श्रनुसार श्राख्यान दुष्टाथंकथ न को कहते हैं । आचायं उपाध्याय की व्याख्या के भ्रनुसार इस लोक के झालोक में श्राख्यान का तात्पयं ऐसे भ्रथ॑ के प्रकाशन से है जिसका साक्षात्कार किया गया हो श्रौर जो भ्रनुभूत है । प्रस्तुत विवेचन के प्रसंग में झाख्यान का श्राद्य्य जो श्रनुभूत है झधिक उपयोगी प्रतीत होता है । इससे व्यक्त हो जाता है कि जिन पभ्राख्यानों का संकलन पौराशिकों ने किया था वे निरथंक एवं निरुद्श्य नहीं थे । बे इनके श्रनुभव के परिणाम थे तथा इनका व्यवहार एवं प्रयोग सामाजिक श्रौर सांस्कृतिक प्रगति की श्रनुकूलता के लिये किया जा सकता था । स्मरणीय है. कि श्राख्यानों की लोकप्रियता इतनी श्रधिक थी तथा वैदिक काल से ही बे इतने महत्त्वपूर्ण. समभे जाते थे. कि पुरारणों का झंग बनने के बाद भी. उन्हें स्वतंत्र पौर पृथक मानने की प्रवृत्ति का सवंधा तिरोभाव नहीं हुभ्रा था । इस प्रसंग में श्री श्रानंदस्वरूप गुप्त शास्त्री ने मनुस्मृति का एक इलोक उद्घृत किया है जिसमें स्वाध्याय मेधातिथि की व्याख्या के अनुसार वेद धमंशास्त्र लग दा दि माइयालजी श्रॉफ दि झायेन नेदीस पथ ₹३ ् ४. झाचार्य बलदेव उपाध्याय पुराण-विमर्शे पू० ६६०६७




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