निराला और राग विराग | Nirala Aur Rag Virag

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Nirala Aur Rag Virag by राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी - Rajeshvar Prasad Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ६ । निराला ते अपने विचारों को स्वतन्त्रतापूवंक व्यक्त किया। 'मतवाला' हारा निराला की साहित्यिक प्रतिभा को प्रस्फुटित होने का पूर्ण अवसर प्राप्त हुआ । छायावाद का जन्म हो चुका था । निराला छायावाद के समर्थक थे। आचायें महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा पं० रामचन्द्र शुक्ल जेसे महारथी छायबावाद का विरोध कर रहे थे । तिराला ने 'मतवाला' के माध्यम से इन चुनौतियों को स्वीकार किया तथा विरोधियों को तकंपूर्ण शैली एवं सशक्त भाषा में कठोर उत्तर दिए । एक प्रकार से यह समय निराला के जीवन का सुखद समय था । इत दिनों की इनकी दिनचर्या का वर्णन करते हुए डा० रामविलास दर्मा ने लिखा है-- शाम को भाँग छानना, दिन-मर सुरती फाँकना, थियेटर देखना, साहित्यिकों से मरस वार्तालाप करना, मुक्तं छन्द मे कविता लिखना, छद्म नामों से आचायों की भाषा में व्याकरण और मुहावरों की भूलें दिखाना और समस्त हिन्दी संसार को चुनौती देना--उनके जीवन का कायंःक्रम था) उस समय एेसा लगता था कि मुशी नवजादिक लाल, बाबू शिवपुजन सहाय और प० सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला एक तरफ और सारी खुदाई एक तरफ है । 'मतवाला' और “निराला' के तामों ने हिन्दी-साहित्य-ससतार में धूम मचा दी। मतवाला के प्रत्येक अंक के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित होने वाली निराला की यह कविता दृष्टव्य है-- अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग-विराग भरा प्याला । पीते हँ जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला । प्रसाद जी को इन पक्तियों ने बहुत प्रभावित किया था । मतवाला में निराला जी ने एक वर्ष तक कार्य किया। त्यागपत्र देकर वह गाँव चले आये! आधिक संकट से विवश होकर वह लखनऊ चले गये ओर अपनी कलम के सहारे गुजर करने लगे! पैसे के लिए, इन्होंने सब कुछ लिखा । सच्‌ १६२८ में इनका सम्बन्ध सुधा नामक मासिक पत्रिका से हो गया जिसमे इनको रचनाओं का स्वागत किया गया और वे नियमित रूप से छपने लगीं । सब्‌ १६२६ में वे दुलारेलाल मागेव द्वारा संचालित गंगा पुस्तक-माला से सम्बद्ध हो गये, ओर उसमें काम करने लगे। इसी के साथ इन्हें सुधा' का सम्पादव-मार भी मिल गया । इसी समय इनके दो उपन्यास--अप्सरा' और अलका प्रकाशित हुए तथा एक कहानी-संग्रह 'लिली! और “परिमलः नामक




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