शैव मत | Shaiv Mat
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
349
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथम अध्याय है.
देती है, अतः यह उपमा भी शीम ही अतिशयोक्ति में बदल जाती है और दरुद्व के समान ही
सोम के भी गन और रबण का उल्लेख होता है ' । सीम के इस गर्जन और रण के
कारण ही सम्भवतः उसको एक स्थान पर वृषभ की उपाधि भी दे दी गई है ' |
द्रव के स्वरूप की जो व्याख्या ऊपर की गई है, उसकी पुष्टि इष बात से मी दोवी है
कि ऋग्वेदीय युक्तों में रद्ध का अग्नि से गहरा सम्बन्ध है। अग्नि को अनेक बार रुद्र कहा
गया है ' | यह ठीक है कि अग्नि को रुद्र मात्र कहने का ही कोई विशेष अर्थ नहीं है;
क्योंकि ये सब केवल उपाधि के रूप में मी किया जा सकता है जिसका अर्थ हैः-कऋर अथवा
गजेन करनेत्राला, और इसी श्रथ में इस उपाधि का इन्द्र और अन्य देवताओं के लिए भी
प्रयोग किया गया है । परन्तु एक स्थल धर रद्र कौ भेधापति' की उपाधि दी गई है *। इससे
सुद्र श्रौर रग्नि का तादात्म्य फलकता ই। यदि हम रुद्र को विद्यूत् का प्रतीक मानें, जो
वास्तव में अ्रग्ति ही है, तो इस तादात्म्य को आसानी से सम्रका जा सकता है। उत्तर
कालीन वैदिक-साहित्य में इस तादात््य को स्पष्ट रूप से माना गया है और फलस्वरूप
सायणाचार्य' ने निरन्तर दोनों को एक ही माना है। रुद्र और अग्नि के इस तादात्म्य
को ध्यान में रखते हुए हम शायद रुद्र की “द्विबहां ' जैसी उपाधियों का भी समाधान अधिक
अच्छी तरह कर सकते हैं। इस शब्द का अनुवाद साधारणतया ुगुने बल्न का! अथवा
<दुगुना बलशाली” किया जाता है। परन्तु इसका अधिक स्वाभाविक और उचित अर्थ वही
प्रतीत होता है जो (सायणः ने किया है। श्र्थात्--
द्वयोः स्थानयोः प्रथिम्याम् अस्तरिक्षे परिवृद्धः `
ये अथ विद्युत् पर पूरी तरह लागू होता है; क्योंकि विद्युत् ही जब प्रृथ्बी पर आती है,
तब अग्नि का रूप धारण कर लेती है। अथवा 'बहाँ' शब्द का श्रं यहां कर्लगी से है जैसा
कि बहीं (अर्थात् मोर) में, द्विबर्हां का अर्थ हो सकता है--दो कलँंगीवाला । इस अर्थ में इस
शब्द का संकेत दुकांटी विद्युत् की ओर होगा ।
इस सम्बन्ध में एक रोचक बात यह है कि ऋग्वेद के प्राचीनतम भागों में रुद्र और अग्नि
का तादात्म्य नहीं है; बल्कि उनमें स्पष्ट भेद किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि
विद्युत् के प्रतीक रुद्र और पार्थिवं वहनि के प्रतीक अग्नि का तादात्म्य वैदिक ऋषिको
धीरे-घीरे ही ज्ञात हुआ था; किन्तु एक समय ऐसा भी था जब इन दोनों को अलग-अलग
तत्त्व माना जाता था |
रुद्रस- अग्नि, इस साम्य को एक बार मान लेने पर, इसको बड़ी सुगसता से ए द्र = श्रम्नि-
सूर्य तक बढ़ाया जा सकता है, और कुछ ऋग्वेदीय यूक्तों से ही प्रतीत होता है कि उस
समय भी रुद्र और सूर्य के इस तादात्म्य को ऋषियों ने पहचान लिया था। इससे हमें
१. ऋग्द : 8, ८६, ९; ६, ९१, ३; €, ६५, ४ श्त्यादि ।
२, » : ६, হ।
३. 9 : २, ९, ६; ९, २, २ ।
४ ७. + १, ४३, ४।
५, » : १, ११४, ६ पर सायण कौ टीका।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...