अथ सौन्दय्यर्यलहरी | Ath Saoundaryalehri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाषार्टीकासदित । १५ भा० टी०--अव श्रीदेवी ओर देवको पृथक्‌ पृथक्‌ प्रकारमानं होत संतें भी परस्पर प्रीति स्नेदाधिक्य से रेक्यता वर्णन करे दै-तदां करद दै किं देदेवी ! जिस समयमे श्रीशिवनी का बाया अंग अर्छशरीर तुमने ग्रहण किया तिप्त समयमें शेषजी जो दक्षिण भाग अद्ध है सोभी तुमने इरस्या লা निश्चय होता दै--क्योकिं अरुण जो तुम्दारा शरीर तिस्तकी छायाकरके संपूर्णदी अरुणद-और चिन्ददे सोभी तुम्हारे रूपमे दे-ओर शारीरके एक दनेसें कुचों करके झुकेहुए संपूर्णशरीर में हें सोभी तुम्दारादी रूप है- और चंद्रकछा जिसमें देदीप्यमान ऐसा गो शिरोभुपण मुकुट सोभी तम्डारादी मुपण प्रसिद्धदै-इसदेतु श्रीभगवतीजी निश्चय है कि शिवजीके अर्छध॑शगीरसे तम्हारा मन হুল লনা हुआ, तब अपनी अरुण प्रभा करके शिवजीसे एक स्वरूप धारण किया दे ॥ २३ ॥ जगत्सूते घाता हरिखति रुद्रः क्षपयते, तिरस्कुरवनेत- त्स्वमपि वपुरीशस्तिरयति । सदा पूरैः सर्व तदिदमतु- ग्रह्धातिं च शिव, स्तवाज्ञाषार्म्न्य क्रणचारतय अरतिकर्योः ॥ २४ ॥ মা टी०--अव्र कहते दै कि सष्टिका रचना पालन संहार इनमे ब्रह्मा आदिं तीन देवतार्ओको एथक्‌ प्रथक्‌ यदपि मुूयता है जो राणाके समानं श्रीभगवतीजीकोदी सवै करत्वे यद वर्णन करें ईं-जगत्सूते-इस पद्य करके तहां कहतेहं कि-हेमात;] आपकी जो चंचल भौँ हैँ इनकी आज्ञाको आठ करकेदी ब्रह्मा साष्टि करे है और तैसेंदी श्रीहारे पालनकरें--और सद्र संहार करें हें फिर संद्ारंके अनंवर ओऔरुद्र अपना, शरीर भी छयको प्राप्त करें है, और जब श्रीसदारिवजी सब णीवोंको उनके वीजरूंप कर्मसद्दित यथा- बकाश अपनेमें घारण करें हैं--यहां प्रयोजन यह दे कि-आपका यह भ्ृकुटी विलासी सव प्रकारे चतुश्च খুলল ই ॥ २४ ॥




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