प्रसाद रचना सचयन | Prasad Rachana Sanchayan

Prasad Rachana Sanchayan by विष्णु प्रभाकर - Vishnu Prabhakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शक प्रसाद रचना संचयन दे की अवमानना अथवा श्रद्धा के पक्ष में एक तरह का भावुक सरलीकरण दिखाई दिया । सच पूछा जाय तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर और जयशंकर प्रसाद का कृतित्व समवेत रूप में संसार का तिरस्कार करनेवाले फलसफ़े की सबसे ज़ोरदार काट प्रस्तुत करता है। करुणा क्या रवीन्द्रनाथ की कहानियों के वातावरण में गहरे रची हुई नहीं? फिर भी कौन कह सकता है कि इस कारुण्य बोध के बावजूद रवीन्द्रनाथ का कवित्व और जीवन-दर्शन आनन्द प्रेरित ही नहीं? जैसा कि हमने पहले भी देखा इन दोनों ट्रष्टियों के बीच कोई अनिवार्य अन्तर्विरोध नहीं है। इन आनन्दवाद में तीव्र रागात्मक संसक्ति भर नहीं है उसमें आन्तरिक स्वातंत््य साधना और आत्मेक्य पर ज़ोर है। प्रसाद जी के उपन्यासों और नाटकों में संघर्ष और समाधान की एक विचित्र लीला दिखाई पड़ती है उनके चरित्र भी राग-विराग आशा-निराशा रागाकुलता तथा दार्शनिक चिन्ताकुलता के बीच आन्दोलित होते रहते हैं। समाधान आश्वस्त नहीं करता वहाँ संघर्ष और अस्थिरता का ही तीखा अनुभव हमारे सिर चढ़कर बोलता है। किन्तु उनकी काव्य-रचनाओं में उत्तरोत्तर एक ऐसा संतुलन सघ जाता प्रतीत होता है जो इस द्न्द्वात्सक लीला को एक समरसता की अनुभूति में घुला देता है। वहाँ तुमुल कोलाहल है तो यहाँ हृदय की बात है। कहना न होगा वह तुमुल कोलाहल जिसे व्यापता है वह कथाकार-नाटककार तथा उच्च काव्य-भूमि पर एक प्रशान्त समरसता के बोध को सिद्ध करनेवाला कवि दोनों अंततः एक ही व्यक्तित्व और एक ही मनीषा के दो पहलू हैं। अन्ततः गाँधीजी के लिए भी तो अनासक्ति योग की सार्थकता जीवन और कर्म के पक्ष में ही मयुकर होने में थी न कि जीवन की चुनौती से पलायन करने में । कुल मिलाकर हम यही कह सकते हैं कि जहाँ एक ओर महात्मा गाँधी ने इतिहास के इस मोड़ पर भारत की लोकचेतना को प्रवृत्ति मार्ग की ओर मोड़ते हुए उसके नेतिक पक्ष को सार-संवार पर अधिक बल दिया वहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर और प्रसाद सरीखे सर्जकों ने उसी प्रवृत्ति के काव्यात्मक अर्थात्‌ आनन्दमूलक पक्ष को पल्लवित किया। जीवन और जगत के संबंध में जो मौलिक अन्तर्टूष्टियाँ इस देश ने अपनी सुदीर्घ लोकयात्रा के दौरान बार-बार कमाई और बार-बार गंँवायी हैं उन्हीं का नया संतुलन उपलब्ध करने की एक कठिन साधना प्रसाद के व्यक्तित्व और कृतित्व में भी हमें दिखाई देती है। प्रस्तुत संचयन से गुज़रते हुए हम देख सकते हैं कि प्रसाद की काव्य कल्पना बराबर उनके प्रत्यक्ष जीवनानुभवों और पर्यवेक्षणों द्वारा प्रेरित और पुष्ट होती रही और उनका कथा-साहित्य भी एक गहरे मनोवैज्ञानिक यथार्थ को ही झलकाता चलता है- अपने सारे रोमान और रहस्य के बावजूद उनका काव्य अवश्य अपने स्वर और रंग में अधिक आदर्श प्रेरित है किन्तु वह भी यथार्थ का उल्लंघन करने की किसी तरह की पलायनेच्छा का परिणाम नहीं। मानवीय नियति के प्रति उनका वही दायित्व बोध वहाँ और भी सारभूत और घनिष्ठ रूप में विद्यमान है। प्रसाद के कृतित्व में उनके रचनात्मक विकास के तीन सोपान स्पष्ट झलकते हैं। काव्य-रचनाओं में चित्राधार कानन-कुसुम महाराणा का पहत्त्व और प्रेम पथिक




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