हिंदी कहानियों में आधुनिक नारी की सामाजिक चेतना की विवेचना | Hindi Kahaniyon Mein Aadhunik Nari Ki Samajik Chetna Ki Vivechana
श्रेणी : कहानियाँ / Stories, हिंदी / Hindi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
144.49 MB
कुल पष्ठ :
193
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शक सकता है। भारतीय दर्शन समस्त संसार को ही मिथ्या मानते हैं और माया का प्रपंच सिद्ध करते हैं। वे जीवन का लक्ष्य भौतिक सुख-साधनों के प्रति राग उत्पनन करना नहीं बल्कि उनका परित्याग करना ही श्रेयस्कर एवं इष्ट मानते हैं । उनमें कामनाओं- वासनाओं के नाश तथा उनके क्षय की ही आकांक्षा की प्रशंसा की गई है - यत्पृथिव्यां ब्रीहि यव॑ हिरण्य॑ पशवः स्त्रिय । सर्व तननालमेकस्य तस्मादु विद्वजुछमं चरेतू ।। साथ ही यह भी कहा गया कि उन सभी प्रकार के योग्य पदार्थों का संग्रह करने के उपक्रम करने में प्रवृत्त होने की अपेक्षा प्रयल्नपूर्वक उनके परित्याग में प्रवृत्त होना ही श्रेयस्कर है हि य एनां प्रान्पुयात् सर्वान् यः एनां केवलां स्त्यजेत् । प्रापणान् . सर्व कामानां. परित्यागों विशिष्यते ।। इन सब कामनाओं में कामिनी की कामना सर्वथा दुस्त्यज्य है। इसलिए गीता में कहा गया - जहि शत्रुं महाबाहो काम खप॑ दुरासदम् ।। वहीं पर यह भी कहा गया है कि सभी भोग इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले हैं और यद्यपि वे विषयी पुरूषों को सुखरूप प्रतिभासित होते हैं किन्तु वस्तुतः वे दुख के ही हेतु हैं और आदि-अन्त वाले हैं अर्थात् अनित्य हैं- न सदा थे और न सदा रहेंगे। इसलिए संयोग एवं वियोग के वे स्वयं जनक हैं अतएव त्याज्य हैं और विवेकी तथा ज्ञानवान पुरुष उनमें मन नहीं रमने देता ये हि संस्पर्शना भोगा दुःख योनय एव ते। आधन्तवन्त कौन्तेय न तेषु रमते बुध ।। अर्जुन ने जब भगवान् कृष्ण से यह प्रश्न किया कि प्राणी स्वयं न चाहता हुआ भी किस के द्वारा बलातू लगाए हुए की भाति प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है तब श्री कृष्ण ने उसके लिए काम को ही क्रोध रूप में सबसे बड़ा वैरी माना बी डे _ अर्जुन उवाच। अथ केन प्रयुक्तो 5य॑ पाप॑ चरित पुरूष । अनिच्छन्नपि वार्ष्णय बलादिव नियोजित ।। श्री भगवानुवाच काम एष कोध एष रजोगुण समुदभवः | महाशनो महापाप्मा विदयेनमिह वैरिणम् ।। १-. महाभारत अनुशासन पर्व ६३/४० २-. महाभारत - शान्ति पर्व - १७७/१६ ३-. गीता - अध्याय ३८४३ ४-. गीता - अध्याय ४/२२ ५-. गीता - अध्याय ३८३६-३७
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