शकुन्तला नाटक | Sakuntala Natak

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Sakuntala Natak by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शड्-पंदुला ही श्ड होत कंचू सन्देह जब सब्जन क हिय श्राय । तःकरण प्रवृत्ति ही देति ताहिं निवटाय ।र२॥ परंतु फिर भी इसकी उत्पत्ति का ठीक ठीक पता लगाऊंगा ) शकुन्तला (घबरा कर)--दई, दई पानो की वूँदों से डर हुआ यद्द ढीठ भोंरा नई चमेलो को छोड़ वार बार मेरे ही मुख पद्माता है । [भोरि की वाधा दिखजञाती है दुष्यन्त (चित्त लगा कर देखता है)--इसका कींकना भी अच्छा लगता है । ह दोहा उतहदी में मोरति हसन आवत लि जिहि ओर । सीखति है मुग्धा मनो भयमिस भूकुटि मरोर ॥२३॥। श्यौर भी-- का [डिर्ण सी दिखज्ञा कर स्ेय्या । २ हग चोंकत कोए चलें चहुरधोँ अंग वारहि वार लगावत तू । लगि कानन गुंजत मंद कछू सनो मन की वात सुनावत तू. । कर रोकती को अधरासूत ले रति का सुखसार उठावत तू , हम खोजत जातिदि पांति मरे घनि रे घनि भोंर कहावत तू ॥२४॥ (२९) जिघर भोंरा श्राता दै उधर दी मुँह फेरती है मानों भय का मिस करके मुग्धापन ही में भों चढ़ाना सीखती है । (२४) चंचल कोयों में कंपती हुई आँखों को तू वर बार स्पर्श करता है कान के पास जाकर ऐसा धीरे घीरे गूंजता हैं मानो कुछ मरम की वात सुनावेगा जब तक चुके दँथों से रोकती है तू होठों का रस ले जाता है झरे भोरे तू धन्य दै'हम तो यही खोजते मरे कि य६ किस जाति की बेटी है | ( होठों के रस को कामी लोग रतिंसवंध्व करते हैं ) की




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