आदान - प्रदान | Aadaan Pradaan

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Aadaan Pradaan by भगवतीप्रसाद वाजपेयी - Bhagwati Prasad Vajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ज्वार-भांवा ॐ “पर यह मामी की बड़ी बहिन के पुत्र हैं| इनका अधिक रहना भी मामी जी के ही यहाँ हुआ है । पढ़ाई में उन्होंने सहायता मी कम नहीं दी है ।” “धब्याह शायद अभी नहीं हुआ है !” “कहते हैं. ब्याह करके स्री को फाँसी पर चढ़ाना मुझे स्वीकार नहीं। अच्छे से अच्छे ब्याह लगे, मामा जी ने भी काफी जोर दिया पर ये अपनी तत्रियत और विचार के इतने दृढ़ हैं कि टस से मस नहीं होने ।”' “तुम क्यों नहीं खममातीं १ पूर्णिमा जब अपनी प्राकृतिक अ्रवस्था में रहती है, उसका मुख জি गुलाब-सा शोभन लगता है। नारी की देह पर जब यौवन का प्रथम ज्वार आदा है, तच वह सम्हाले नहीं सम्हलता । अंग-अंग जैस गदराये आंम-सा सुवोधित और स्निंग्ध होकर उद्दीप्त हो उठता है। पूर्णिमा भी आज इसी व्थिति में है। इसीलिए विनोद उसकी रूप-माधुरी को ओर निरन्तर एक मोहक दृष्टि से देखा करता है। उसके क्षण-छुण के भाव- विपर्यय को वह्‌ अपलक अपनी चेतना में भर लेना चाहता है, और इसी- लिए जब्र उसने उपयुक्त प्रश्न किया और उसके फलस्वरूप पूर्णिमा का मुख गम्मीर हो उठा, तो उसे आश्चर्य हुआ | पूर्णिमा की स्थिति दूसरी है। जनादन उसके साथ खेला है | सखा के साथ जो एक प्रकार का निष्कपट भाव रहता है, प्रारम्भ में बिल्कुल वेसा ही निर्मल भाव वह उसके प्रति रखती थी। किन्तु अन्त में ऐस दिन भी आये, जन्न दोनों ने अनुभव किया कि वे परस्पर एक ऐससे सम्बन्ध में गधे हुए हैं, जो टूट नहीं सकता, मिट नहीं सकता । जो पहले हास परिहास में अपने मिलन के दिन व्यतीत करते थे, वे दो हृदय श्रत्र एक




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