प्राकृत भाषाओँ का व्याकरण | Prakrat Bhashaon Ka Vyakaran

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Prakrat Bhashaon Ka Vyakaran  by डॉ हेमचन्द्र जोशी Dr. Hemchandra Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~ च ज इधर ही बीस-बाईस वर्ष पे डौस्वी नित्ति महोदय ने अपनी पुस्तक 1.65 @2- 111112.116015 71211 में पिशल पर कुछ लिखा है। पाठकों को उससे अवश्य ভাল मिलेगा, इसलिए हम यहाँ उसे उद्धत कसते है । डौस्वी नित्ति का दृष्टिकोण प्राकृत भाषा के प्रकांड शान के आधार पर है, इस कारण उस पर ध्यानपूर्वक विचार करना प्रत्येक प्राकृत विद्वान या विद्या के जिज्ञासु का कर्तव्य है। पिशल के व्याकरण पर इधर जो भी लिखा गया है, उसका ज्ञान होने पर ही पिशल के व्याकरण का सम्यकू বান निर्भर है। इस कारण उसके उद्धरण यहाँ दिये जाते हैं--- “यदि हम पिशल के प्राकृत भाषाओं के व्याकरण का दूसरे पाराग्राफ को जाँचे और पड़तालें तो और इसकी छास्सन के ग्रन्थ इन्स्ट्थ्यूत्सिओने प्राकृतिकाए? के वर्णन से तलना करें तो हमै खीकार करना पड़ेगा कि लास्सन ने इस सम्बन्ध में सभी पहलुओं से विचार किया है और उसके निदान तथा मत पिशल से अधिक सुनिश्चित हैं। कई कारणों से आज-कल कैवल पिशल की पुस्तक ही पढ़ी जाती है, इसलिए हम अति आवश्यक समझते हैं कि सबसे पहले, अर्थात्‌ अपने मुख्य विषय पर कुछ लिखने से पहले, उन कुछ मतों की अस्पष्टता दूर कर दी जाय, जिनके विषय में पिदा साहब अपने विशेष विचार या पक्षपात रखते है । अब देखिए जब कोई ग्रन्थकार दंडिन्‌ का काव्यादयं (१।२४) वाला शोक उद्धु त करता है और महाराष्ट्री की चर्चा करता है, तो उसे उक्त मेक के पहले पाद कोही उद्धत न करना चाहिए। क्योंकि यह बात दूसरे पाद में स्पष्ट कौ गई है। छोक यों है-- महाराष्ट्राश्र्यां भाषां प्रकृष्ट प्रातं विदुः| বন सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम्‌ ॥ इसका अर्थ है--महाराष्ट्र में बोली जानेवाली भाषा को लोग प्रकर पराकृत समझते हैं | इसमें सूक्ति-रूपी रत्नों का सागर है और इसी में 'सेतुबन्ध' लिखा गया है 1, इस छोक में दंडिनू का विचार यह नहीं था कि वह प्राकृत भाषाओं का वर्गीकरण करे | वह तो कैवछ यह एक तथ्य बताता है कि महाराष्ट्री इसलिए प्रकृष्ट है कि उसका साहित्य सबसे अधिक भरा-पूरा है | अब यदि कोई यह दावा करे कि महाराष्ट्री सबसे उत्तम प्राकृत है; क्योंकि वह संस्कृत के सबसे अधिक निकट है, तो यह मत स्पष्ट ही अखीकार्य है और इस प्रकार की उल्टी बात भारत के किसी व्याकरणकार ने कभी नहीं व्यक्त की। उनके लिए तो रंस्कृत कै निकट्तम शौरसेनी रही है | हम भी इसी निदान पर पहुँचे हैं। उदाहरणार्थ, मार्कण्डेय ( प्राकृतसर्वस्व, ९१ ) का निदान भी ऐसा ही है-- शोरसेनी महाराष्ट्रयाः संस्कृतासुगमात्‌ क्वचित्‌ | यह भी ठीक नहीं है कि हम व्याकरणकारों की प्राचीनता तथा नवीनता को पहचान या वर्गीकरण इस सिद्धांत पर करें कि पुराने व्याकरणों में प्राकृत के कम भेद गिनाये गये हैं तथा नयों में उनकी संख्या बढ़ती गई है। कम या अधिक प्राकृत




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