भारतीय दर्शन का इतिहास भाग 2 | Bharatiy Darshan Ka Itihas Bhag 2

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Bharatiy Darshan Ka Itihas Bhag 2 by डॉ. एस. एन. दासगुप्ता - Dr. S. N. Dasgupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शाकर वेदातत सम्प्रदाय क्रमश जगत पुयमान नहीं है।. इस प्रकार परमाथ के साथ साथ सापेक्ष लोक सवृत्ति सत्य भी है।. इसके श्रतिरिक्त सवेदनात्मक भ्रम विज्म श्रादि मी होते है जिनका सामाय श्रनुभवा में बाघ ग्रलोक सवत अथवा मिथ्या सदत होता है तथा जा झश शाग की तरह विद्यमान मात्र हूँ। जगतुप्रतीति में श्रतसूत विपर्यास चार प्रकार के माने जाते हैं यथा क्षणिक को स्थाई सममना दुखद को सुखद समभना श्रपबित्र को पढिश्र समभना तथा श्रात्मरहित को सात्म समभना | . यह विपर्यास श्रविद्या के कारण हाता है।. च द्रकीति के द्वारा झाय टढाझाय परिपृच्छा से उद्घत दा मे यह कहा है कि जिस प्रकार कोई मतुप्य श्रपने वो स्वप्न मे राजा वी बू के साथ सत्र व्यतीत करता हुमा देखता है एव एकाएक यह श्रनुमव करके कि लोगा ने उसको देख लिया है झपनी जान की रक्षा हेतु दौडता है इस प्रकार किसी स्त्री की श्रनुपस्थिति मे भी उसका प्रत्यक्षी करण करना उसी प्रकार हम भी किसी जगत प्रतीति के न हाते हुए भी उसके नानारुंपा के प्रत्यक्ष होने वी घोपणा वरने के विपर्यीस में सदा गिरते चले जा रहे है । विपर्यास की ऐसी उपमाए स्वमावत इस कल्पना को ज म देती हैं कि कोई ऐसा सत श्रवश्य होना चाहिए जिसे किसी भ्रय वस्तु के रूप में ग्रहण करने की भूल होती है परतु जसाकि पहले कहा जा चुवा है वीद्धा ने इस तथ्य पर बल दिया है कि स्वप्न में अमात्मक प्रती तियाँ हमारे द्वारा पूर्वानुभूत वस्तुगत दृश्या के रूप में निस्स देह पस्तु- गतरूप से चात थी ये ऐसे ध्रनुभव है जिनकी हमें प्रतीति होती है यद्यपि बस्तुत कोई ऐसा सत्‌ नहीं होता जिस पर उन प्रतीतियो का श्रष्यास श्रथवा श्ारोपण हो । इस घात पर ही दाकर का उनसे मतभेद था ।. इस प्रकार ब्रह्मसुत्र पर लिखे गए श्रपने भाप्य वी प्रस्तावना में वह बहते हैं कि सम्पूण भ्रात प्रत्यक्ष का सार यह है कि एक विषय के स्थान पर दूसरे विपय को ग्रहण करने की इसमें भूल होती है एवं एक विपय के गुण लक्षण भर विशेषताएँ दूसरे विपय के गुण लक्षण श्रौर विशेषताएँ समभे जाते हैं। स्मृत विम्ब के सटश किसी दस्तु की किसी विपप में मिध्या प्रतीति के रूप में ्रम की परिभाषा की गई है। कुछ लोगा न इसे एक वस्तु के सबध मे दुसरे वस्तु के लक्षणों की मिध्या स्वीकृति कहकर समसाया है। भय लांग स्मरण के लोप के इद चत््दारों विपर्यासा उच्यते तयया श्रतिक्षणविताशिनि स्कघपचके यो नित्य इति ग्राह स विपर्पास दुखात्मकेश्कघपचके य सुख इति विपरीता प्राह॒ सोध्परी विपर्यास ... रीर श्रघुचि स्वभाव तत्र यो शुचित्वेन ग्राहू स विपर्यास पच रेंकप निरात्मक तस्मिन्‌ थ. श्रात्मग्राह श्रनात्मनि झात्मासिनिवेश स विपर्यास । डे उरी स्थान पर चद्धरीति को टीका रेदे १३ इसकी तुलना योग सूत्र २ ५1 माध्यमिक-सूत्र २३ १३ पर चद्धकीति की टीका ।




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