शास्त्रसारसमुच्चय | Shastrasarsamuchchay
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1.54 MB
कुल पष्ठ :
66
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शाखसारसमुधयः । श्ड
यथा-देवकुरु भोगभूमिमें सरोचर 2, उत्तरकुरु भोग'
भूमिमें सरोवर ५, दोनों ओरके दोनों भद्रशाल बनोंमें ५-प५-
'ऐसे एक मेरु संबंधी २० और पांचों सेरके १०० सरो-
चर हैं ॥ १६ ॥
सदसूं कनकाचलाः ॥ १७॥
अर्थ--कनकाचरु एक हजार हैं ।
यथा--सीता और सीतोदा महानदियोंमें देव रु भोग-
भूमि ओर उत्तरफुर भोगभूमिके २ क्षेत्र तवा इन हो सीता
और, सीतोदा मददानदियोपिं पूर्व और पश्चिम भद्रशालके २:
घेत्र, इन चारों देत्रेंमें पांच पंच द्रद हैं; ऐसे इन वीस
द्रदोंके कितारों पर पंक्तिरुप पांच पांच कांचनगिरि हैं,
ऐसे एक मेरुके २०० कांचनगिरि ओर पांचों मेरुके
हू ००० कांचनेगिरि दें ॥ १७ ॥
. चलार्रिशद्ग्गिजनगाः ॥ १८ ॥
अर्थ-दिग्गज पर्वत चाठीए हैं ।
यथा-पूर्व भद्रशालमें 'पदमोचर' ओर' नील २ दिग्गज,
देवकुरुमें 'सस्तिक' और “अंजन' २ दिग्गज, पश्चिम
भद्रशालमें कुपुद और पताश्न २ दिग्गन, उत्तरकुरुमें अब-
तथा और रोचन २ दिग्गज, ऐसे एक मेरु संवन्धी आठ.
दिग्गज हैं । इसमकार £ पेरसंबन्धी ४० दिग्गज हुये ।
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