जैनधर्म प्रकाश | Jain Dharm Prakash

Jain Dharm Prakash by शीतालप्रसाद वैध - Sheetalprasad Vaidh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(९) की कड़ी झाश्ञा नहीं हे-वे स्वयं मरे हुवे पशुष्य मास सेगे मैं दोप नहीं खमसने है, इसी से चीन व श्रह्मामं फरोड़ों बौद्ध मांसा- हारी है जबकि जैन कोर थी प्रगदपने से मांसाहारो न सिलेंगा । इसलिये जैनमत बौद्धमत की शासा है णह्द कथन ठोक नहीं है और न यह द्दिन्टूमत की शाखा है, क्योकि सांखय, मीर्मांसादि चुनो से इसका दाशनिक मार्ग शिस्न दी प्रकार का है. जो इल पुस्तक के पढ़ने से विदित होगा । मत की शिक्षा सीवी शोर वैराग्ययूण है। दर एक 'शूदरूथ को छुः कर्म नित्य करने का उपदेश है। ( १) देवपूजा (९) गुरूभक्ति ( ३ ) शाखपढ़ना (४) संयम ( 301 ठण्पारशर्ण, 07 $शाए एप ए९ ), का अभ्यास ( ५. ) तप ( साम्गयिंक या संध्या था ध्यान था ( फ०्तादिधिणा है (६) दान ( शादार, झोपधि, न्नमय तथा विद्या) तथा उनको इन शाठमूल शुखोकि पालने का उपदेश हैः-- मद्यमांस मछु त्याग सहाएब्रत पंचकसु । मी सूलगणानाइुश दीणां श्रमणोतमा। ॥। झर्था्ति-मद्य या नशा न पीना, मासि ने खाना, मधु यानी शहद ल खाना क्योंकि इसमें बहुत से सुच्म जंतुझों का नाश होता है, पंच-पापों से घचना श्र्गाव्‌ जान घूम कर बूथा पशु पच्षी लादि की दिसा न करना, भू ठ न बोलना; चोरी न करना, अपनों स्त्री मे संतोष रखना; परिश्रदद या सम्पत्ति की मर्यादा झर लेना जिससे तप्या घटे इनका गदस्थो के भाठ मूल गुण उच्चतम झाखायों-ने चतलाया। है । हमारे जैनेतर भाई देख सकते हैं कि यंद शिक्षा भी हर पक




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