चिरंजीलालजी बडजाते (दूसरा भाग) | Chiranjilal Badjate (vol. - Ii)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जमाने मे मंदिर जाना, देवदशन करना महत्व की बात थी । उसमें समाज का संगठन मी था। शाख्र-समा, पूजा-अर्चा, ब्रत-नियम रखने के सामूहिक उपक्रम होते थे । छोटे-छोटे बाछक भी बडे उत्साह और' भक्ति से मंदिर जाते थे | अनेक पद विनतियाँ और स्तोत्र उन्हें अपने-आप कंठस्थ हो जाते थे। व्रत-उपवास का अभ्यास भी होता था । चिरंजीलाल्जी भी नियम से मंदिर जाते थे। दशलक्षण त्रत के दिनों मे व्रत आदि रखते थे । नानाजी का स्वगवास हो जपम से चिरंजीलालजी ननिहाल नहीं रह सके और अपनी माँ के साथ, हु... चले आये, जहाँ उनके पिताजी नोकरी करते थे । र स 7 पहली नोकरी । अब्र तो चिरजीलाल्जी को मी कामधे में लगना था। पिताजी श्री बागमल जुगराज की फम में रख दिया | वहाँ इनको कुछ रिक ज्ञान मिला | कुछ समय बाद चिरंजीलछालज्ञी को भाटापारा के श्री हीराछालजी भट्टड के यहाँ रख दिया | हीराछालजी चिरंजीलालजी पर खूब प्यार करते थे, खून्न सिखाते ये | यहाँ तक कि जब चिरंजी- लालजी मोजन करते, तभी वे भोजन करते । लेकिन वे पीटते भी खूब थे | मन से वे पीटना नहीं चाहते थे, छेकिन पीडना उनका स्वभाव बन गया था। जरा-जरा-सी बात पर पीट देते थे | एक बार की बात है कि भाटापारा मैं शुरु गोपालदासजी बरैया आये हुए; थे। उनका व्याख्यान होनेवालछा था। चिरंजीलालजी व्यास्थान में जाना चाहते थे । हीराछाछजी ने कहा कि जाना हो, तो रोकड मिलाकर जाओ ! रोकड़ मिलाने छगे, तो सौ रुपये घटने लगे | चिरंजीलालजी चिन्तित तो हुए, लेकिन व्याख्यान में जाने की धुन इतनी सवार थी कि रोक़ड मिल गयी कहकर व्याख्यान में चल दिये। व्यास्थान से छौटने पर सौ रुपये की चिन्ता सवार हो गयी। उन दिनों सो रुपये बहुत बढ़ी बात थी। बहुत सोचने पर मी इनके ११




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