साकेत | Saket

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Saket by मैथिलीशरण गुप्त - Maithili Sharan Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम सर्ग कोट-कलदो पर प्रणीत विहग हैं , ठीक जैसे सूप, बसे रग हैं। वायुकी गति गान देती है उन्हे , वाँसुरी की तान देती है उन्हें। ठौर ठौर श्रनेक अध्वरप्युप हैं , जो. सुसवतु के निददन-रूप हैँ । राघवों की इन्द्र-मैनी के बडे , वेदियों के साथ साक्षी से खडे , मुरतिमय, विवरण समेत, जुदे जुदे , ऐतिहासिक ब्रत्त जिनमे हैं खुदे , तन विद्याल कीति-स्तम्भ है , दर करते दानवो का दम्भ हैं। स्वर्ग की तुलना उचित हो है यहाँ , * किन्तु सुरसर्ति कहाँ, सरयू वहाँ * वह मरो की मान फार उतारती » यह यही से जीवितों को तारती ! अगूराग पुरागनाओ के घुले , रग देकर नीर मे जो हैं घुले ;




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