हिंदी साहित्य कोश भाग १ | Hindi Sahitya Khosh Part 1

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धर्मवीर भारती - Dharmvir Bharati

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धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma

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ब्रजेश्वर वर्मा - Brajeshwar Varma

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रघुवंश - Raghuvansh

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रामस्वरूप चतुर्वेदी - Ramswsaroop Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मात्र पुरुष-अंग्रेजी (साहित्य) : (१७१५९ हावके स्थानपर भावी चाव्दका अयोग 'र किया है और सर्वप्रथम “भाव को भेदके रूपमें इसके अन्तगंत स्वीकृति भी 'दी है । आधुनिक वितेचकोमे कन्देयालाल पोद्दार तथा इ्यामसुन्दर दासने पुनः संस्कृत-विभाजनकों मानकर सावकों अंगज अलंकार माना हे | मरतके आधारपर धनंजयका कथन है; 'निर्विकारात्म- कात्सत््वाद_.. भावस्तन्रायविक्रिया' २३३), कविकार चित्तमे योबलोद्गमके समय आरम्भ होनेवाला श्वकाररूप आदि स्पन्द ही भाव है । जिस प्रकार बीजका ',आदि विकाइ अंकुरके रूपमें प्रकट दोनेसे पूर्व स्थूलता आदि ने. रूपमें प्रकट होता है; उसी प्रकार यौवनोद्गमके साथ से जिस कामबविकारका वपन होता है, वहीं “भाव” हक हंगामा, व सिगार मगन मन रहे; ताकों कवि हेला (रसमंजरी) । केशवके अनुसार-“पूरन ग्रे भूलत लाज समाज” (रलिकप्रिया; 5६1२८) पद्माकरने दस “हावो'के बाद 'हेलाका लक्षण भी “दें जु ढिठाई नाह संग प्रगटे बिषिध विल ग्यारहों हाव सों हेला नाम प्रकास”” (जगद्दिनोद बिहारीके इस दोदेमें नारो-सौन्दर्यका यह “छिनकु चलति ठिठकति छिनकु, सुज॒प्रीतम : चढ़ी अदा देखति घटा; बिज्जु छटा सी नारि' ३८४) | इसी प्रकार पद्माकरका उदाहरण है--*' वही मुसकाइ लला फिरि भाइयों खेलन (*जगद्दिनोद, ४०) | --आए :ज्रदलाता है । उदाहरण--'गहि हाथसों हाथ सहेलीके | अंगुष्ट सात्र पुरुष-श्रुतियोंगें जहाँ बरह्मकी सब ग्साथमें आवति ही बृषभान लली | मतिराम सु बात ते आवत नीरे निवारत भौंरनदी अबली । लखिके मनमोददन कौ सकु ची; करयों चाहति आपनि ओट अली । चित चोरि . लियो दग जोरि तिया मुख मोरि कछू सुसकाय चली (रसिराज', ३११) । हावच अलंकार-संस्द्तमें प्रायः अंगज अलंकारका भेद; पर हिन्दीमें 'हाव” झाब्दका प्रयोग सम्पूर्ण साच्विक अरलंकारों- (दे०)के लिए भी दोता है । संस्कृत लेखकों में भानुदत्तने लीला विलासादि दश अलंकारोंको 'दाव'की ही संज्ञा दी है । वह हावकों नारीकी स्वाभाविक चेष्टा मानते हैं । पुरुषोमे भी लक्षित दोनेवालें बिव्बोक, विकास, विच्छित्ति तथा विश्रम केवल उपाधि स्वरूप ही उनमें होते हैं । मरतके अनुसार “पसत््व भावके उद्देकके साथ अन्य व्यक्तिके प्रति व्यंजित होता है और इसीकी विभिन्न स्थितियोंसे सम्बद्ध 'दाव' देखे जा सकते है” २४1९ । घनंजयके अनुसार-- “हेलादय श्ंगारो ('ददारूपक; २३४) । भावकी वह विकसित अवस्था; जिसमें भोगेच्छा- प्रकाशक कटाक्षपात आदि विकार प्रकट होसे लगते हैं, 'हाव' कहलाती है । मनमें अवस्थित भाव ही हावके रूपमें विशेष व्यक्त हो जाता है। हिन्दीमें नन्ददासने इसका सर्वप्रथम उद्लेख किया है । और देवका कथन है कि यद्यपि यद्द सभी प्रकारकी नायिकाओंमें होते है, किन्तु प्रौढ़ाओंगें यह विशेष रूपसे रुक्षित किये जाते है । उदाहरण-“'सरसावति काको नहीं; रस निच्चुरत मुखुकान। तिरछी चितवन कहति है; तिय चितकी बतियान” (हरिओध : । हेला अलंकार--संस्कृतकी परम्परामें अंगज अलंकारका भेद, हिन्दीमें नन्ददास (१६ झु० ई० उ०) द्वारा उर्लिखित और बादमें 'हाव'के अन्तर्गत स्वीकृत ! छढित अभिनययुक्त नाना विकारोंके द्वारा दावका शंगाराक़तिकों सुव्यक्त एवं सुस्पष्ट करता इआ मभावकों अधिकाधिक व्यक्त करना । भरते (३ झ० इ०) ने “ललित अभिनय' द्वारा अभिव्यक्त आधारित प्रत्येक व्यक्तिके 'भाव'को श्हिला” कहा (सनाय्यशास्तर, २४११ । घनंजय (१० झा० ई०)स्े इसका लक्षण दिया है--“स एव हेला सुव्यक्तश्व॑ंगाररस- सूचिका” (दशरूपक, 1३४), अर्थात्‌ शुंगारकी सहज संकेत किन अभिव्यक्ति । नन्ददास इसका वर्णन करते है-- 1 वाल बनायी करे, बार वार कर दरपन धरे । कक वाला, सम्पूर्ण रूप, रस; गन्ध, आश्रयर और सर्वव्यापी कहा गया है; वहीं उसे छोटा बताया गया है। रुन्तोंके साहित्यमें राम, रदीम केशव आदि नामोसे अभिडहित ब्रह्म भी इन दो' बहुधा वर्णित हुआ है । अपने इस छोटे-से-छोटे 'वामन' है, हृदय-कमल-वासी है, अंगुष्ठ म (- अंगूठेके आकार वाल) है । ऐसे स्थछो पर ही भाँति सन्तोंका अभिप्राय भी बहुधा जीवात है । अंगुष्ठमात्र पुरुष अर्थात्‌ जीवात्मा । -- ग्रेजी (साहित्य) अर्थात, इंगलिदा इ इंग्लैण्ड देशके निवासियोकी भाषा है। अब इसी अथंमें इस नामका प्रयोग होता है; मिन्ठु यह केवल इंग्लेण्डमें वरन्‌ू अपने न्यूनाधिक परिव्ति अमेरिका; आस्ट्रेलिया, न्यूजीलेण्ड तथा दक्षिणी : कतिपय भागोंमें काममें लायी जाती है । इसके ' संसारके अनेक देशोंमें सांस्झ्तिक तथा व्यापारिक प्रदानके लिए अय्रेजी भाषाका प्रयोग बहुसंख्यक ले है । निश्चित रूपसे यह कहना कि अंग्रेजी बोल संख्या संसारमें कितनी है; कठिन है । प्रोफेसर अ रिचड्सका अनुमान है कि कुछ प्रायः २० लोग अंग्रेजी भाषा बोलते है। नवीं छातीमें ! (60881) झाब्द्से उन सभी बोलचालकी भाषाओं होता था; जो न्रिटेनके ऐंग्ल, सैक्सन और जूट निवासियोंमे प्रचलित थी । इस तरह इंगलिदश नामकरण इंग्लैण्ड देशके नामकरणके पूर्व ही हो घु सा पूर्व नवी झातीके लगभग केल्ट जातिके' आधुनिक इंग्लैण्ड और आयरलैण्डके द्वीपोपर अधिक किया । तदुपरान्त उन्हींदी सभ्यता और भाषाक हुआ। रोमन लोगोने इस द्ीपसमूहवों ४३ इं० अधीन किया और पॉचवी झतीके आरम्भतक वहाँ करते रहे । उनकी सथ्यताका देशपर व्यापक प्रभाव पॉचवी झतीमें जब ब्बर जातियोंने रोमन सा आक्रान्त किया, उस समय रोमन ब्रिटेनको छोड़ गये । उसी शताब्दीमें जर्मनीमें नदीके तटपर वाली ट्यूटन जातियोंने त्रिटेनपर हमला किया जातियोंमे प्रमुख थीं ऐंग्ल, सैक्सन और जूट । रूगर सौ वर्षके अन्तर्गत इन सशक्त जातियोने प्रायः सम्पूर्ण




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