हिंदी साहित्य कोश भाग १ | Hindi Sahitya Khosh Part 1
लेखक :
धर्मवीर भारती - Dharmvir Bharati,
धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma,
ब्रजेश्वर वर्मा - Brajeshwar Varma,
रघुवंश - Raghuvansh,
रामस्वरूप चतुर्वेदी - Ramswsaroop Chaturvedi
धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma,
ब्रजेश्वर वर्मा - Brajeshwar Varma,
रघुवंश - Raghuvansh,
रामस्वरूप चतुर्वेदी - Ramswsaroop Chaturvedi
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
254 MB
कुल पष्ठ :
943
श्रेणी :
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धर्मवीर भारती - Dharmvir Bharati
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धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma
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ब्रजेश्वर वर्मा - Brajeshwar Varma
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रघुवंश - Raghuvansh
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रामस्वरूप चतुर्वेदी - Ramswsaroop Chaturvedi
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मात्र पुरुष-अंग्रेजी (साहित्य)
: (१७१५९ हावके स्थानपर भावी चाव्दका अयोग
'र किया है और सर्वप्रथम “भाव को भेदके रूपमें इसके अन्तगंत
स्वीकृति भी 'दी है । आधुनिक वितेचकोमे कन्देयालाल पोद्दार
तथा इ्यामसुन्दर दासने पुनः संस्कृत-विभाजनकों मानकर
सावकों अंगज अलंकार माना हे |
मरतके आधारपर धनंजयका कथन है; 'निर्विकारात्म-
कात्सत््वाद_.. भावस्तन्रायविक्रिया' २३३),
कविकार चित्तमे योबलोद्गमके समय आरम्भ होनेवाला
श्वकाररूप आदि स्पन्द ही भाव है । जिस प्रकार बीजका
',आदि विकाइ अंकुरके रूपमें प्रकट दोनेसे पूर्व स्थूलता आदि
ने. रूपमें प्रकट होता है; उसी प्रकार यौवनोद्गमके साथ
से जिस कामबविकारका वपन होता है, वहीं “भाव”
हक
हंगामा, व
सिगार मगन मन रहे; ताकों कवि हेला
(रसमंजरी) । केशवके अनुसार-“पूरन ग्रे
भूलत लाज समाज” (रलिकप्रिया; 5६1२८)
पद्माकरने दस “हावो'के बाद 'हेलाका लक्षण भी
“दें जु ढिठाई नाह संग प्रगटे बिषिध विल
ग्यारहों हाव सों हेला नाम प्रकास”” (जगद्दिनोद
बिहारीके इस दोदेमें नारो-सौन्दर्यका यह
“छिनकु चलति ठिठकति छिनकु, सुज॒प्रीतम :
चढ़ी अदा देखति घटा; बिज्जु छटा सी नारि'
३८४) | इसी प्रकार पद्माकरका उदाहरण है--*'
वही मुसकाइ लला फिरि भाइयों खेलन
(*जगद्दिनोद, ४०) | --आए
:ज्रदलाता है । उदाहरण--'गहि हाथसों हाथ सहेलीके | अंगुष्ट सात्र पुरुष-श्रुतियोंगें जहाँ बरह्मकी सब
ग्साथमें आवति ही बृषभान लली | मतिराम सु बात ते
आवत नीरे निवारत भौंरनदी अबली । लखिके मनमोददन
कौ सकु ची; करयों चाहति आपनि ओट अली । चित चोरि
. लियो दग जोरि तिया मुख मोरि कछू सुसकाय चली
(रसिराज', ३११) ।
हावच अलंकार-संस्द्तमें प्रायः अंगज अलंकारका भेद;
पर हिन्दीमें 'हाव” झाब्दका प्रयोग सम्पूर्ण साच्विक अरलंकारों-
(दे०)के लिए भी दोता है । संस्कृत लेखकों में भानुदत्तने
लीला विलासादि दश अलंकारोंको 'दाव'की ही संज्ञा दी है ।
वह हावकों नारीकी स्वाभाविक चेष्टा मानते हैं । पुरुषोमे भी
लक्षित दोनेवालें बिव्बोक, विकास, विच्छित्ति तथा विश्रम
केवल उपाधि स्वरूप ही उनमें होते हैं । मरतके अनुसार
“पसत््व भावके उद्देकके साथ अन्य व्यक्तिके प्रति व्यंजित
होता है और इसीकी विभिन्न स्थितियोंसे सम्बद्ध 'दाव' देखे
जा सकते है” २४1९ । घनंजयके अनुसार--
“हेलादय श्ंगारो ('ददारूपक;
२३४) । भावकी वह विकसित अवस्था; जिसमें भोगेच्छा-
प्रकाशक कटाक्षपात आदि विकार प्रकट होसे लगते हैं, 'हाव'
कहलाती है । मनमें अवस्थित भाव ही हावके रूपमें विशेष
व्यक्त हो जाता है। हिन्दीमें नन्ददासने इसका सर्वप्रथम
उद्लेख किया है । और देवका कथन है कि यद्यपि यद्द सभी
प्रकारकी नायिकाओंमें होते है, किन्तु प्रौढ़ाओंगें यह विशेष
रूपसे रुक्षित किये जाते है । उदाहरण-“'सरसावति काको
नहीं; रस निच्चुरत मुखुकान। तिरछी चितवन कहति है;
तिय चितकी बतियान” (हरिओध : ।
हेला अलंकार--संस्कृतकी परम्परामें अंगज अलंकारका
भेद, हिन्दीमें नन्ददास (१६ झु० ई० उ०) द्वारा उर्लिखित
और बादमें 'हाव'के अन्तर्गत स्वीकृत ! छढित अभिनययुक्त
नाना विकारोंके द्वारा दावका शंगाराक़तिकों सुव्यक्त एवं
सुस्पष्ट करता इआ मभावकों अधिकाधिक व्यक्त करना ।
भरते (३ झ० इ०) ने “ललित अभिनय' द्वारा अभिव्यक्त
आधारित प्रत्येक व्यक्तिके 'भाव'को श्हिला” कहा
(सनाय्यशास्तर, २४११ । घनंजय (१० झा० ई०)स्े
इसका लक्षण दिया है--“स एव हेला सुव्यक्तश्व॑ंगाररस-
सूचिका” (दशरूपक, 1३४), अर्थात् शुंगारकी सहज संकेत
किन अभिव्यक्ति । नन्ददास इसका वर्णन करते है--
1 वाल बनायी करे, बार वार कर दरपन धरे ।
कक
वाला, सम्पूर्ण रूप, रस; गन्ध, आश्रयर
और सर्वव्यापी कहा गया है; वहीं उसे छोटा
बताया गया है। रुन्तोंके साहित्यमें राम, रदीम
केशव आदि नामोसे अभिडहित ब्रह्म भी इन दो'
बहुधा वर्णित हुआ है । अपने इस छोटे-से-छोटे
'वामन' है, हृदय-कमल-वासी है, अंगुष्ठ म
(- अंगूठेके आकार वाल) है । ऐसे स्थछो पर
ही भाँति सन्तोंका अभिप्राय भी बहुधा जीवात
है । अंगुष्ठमात्र पुरुष अर्थात् जीवात्मा । --
ग्रेजी (साहित्य) अर्थात, इंगलिदा इ
इंग्लैण्ड देशके निवासियोकी भाषा है। अब इसी
अथंमें इस नामका प्रयोग होता है; मिन्ठु यह
केवल इंग्लेण्डमें वरन्ू अपने न्यूनाधिक परिव्ति
अमेरिका; आस्ट्रेलिया, न्यूजीलेण्ड तथा दक्षिणी :
कतिपय भागोंमें काममें लायी जाती है । इसके '
संसारके अनेक देशोंमें सांस्झ्तिक तथा व्यापारिक
प्रदानके लिए अय्रेजी भाषाका प्रयोग बहुसंख्यक ले
है । निश्चित रूपसे यह कहना कि अंग्रेजी बोल
संख्या संसारमें कितनी है; कठिन है । प्रोफेसर अ
रिचड्सका अनुमान है कि कुछ प्रायः २०
लोग अंग्रेजी भाषा बोलते है। नवीं छातीमें !
(60881) झाब्द्से उन सभी बोलचालकी भाषाओं
होता था; जो न्रिटेनके ऐंग्ल, सैक्सन और जूट
निवासियोंमे प्रचलित थी । इस तरह इंगलिदश
नामकरण इंग्लैण्ड देशके नामकरणके पूर्व ही हो घु
सा पूर्व नवी झातीके लगभग केल्ट जातिके'
आधुनिक इंग्लैण्ड और आयरलैण्डके द्वीपोपर अधिक
किया । तदुपरान्त उन्हींदी सभ्यता और भाषाक
हुआ। रोमन लोगोने इस द्ीपसमूहवों ४३ इं०
अधीन किया और पॉचवी झतीके आरम्भतक वहाँ
करते रहे । उनकी सथ्यताका देशपर व्यापक प्रभाव
पॉचवी झतीमें जब ब्बर जातियोंने रोमन सा
आक्रान्त किया, उस समय रोमन ब्रिटेनको छोड़
गये । उसी शताब्दीमें जर्मनीमें नदीके तटपर
वाली ट्यूटन जातियोंने त्रिटेनपर हमला किया
जातियोंमे प्रमुख थीं ऐंग्ल, सैक्सन और जूट । रूगर
सौ वर्षके अन्तर्गत इन सशक्त जातियोने प्रायः सम्पूर्ण
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