मैथिलि लोकगीत | Maithili Lokgeet

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र मेथिली लोकगीत फिरते हैं। जनवरी से दिसम्बर तक बारहों महीने गीतों की बहार रहती हे । स्फृत्तिप्रद भोजन और आहार-विहार जिस तरह जं.वन का आवश्यक अंग है उसी तरह मीठे नेसगिक गीतों का प्रेम-गान भी यहाँ के लोगों के जीवन का दँनिक अंग बन गया है । पुंसवन सीमन्तोन्नयन शिदु-जन्म उपनयन विवाह आदि पोड़दय संस्कारों की बात का तो कहना ही क्या ? प्रातः दुपहरी संध्या मध्यनिशा आदि भिन्न-भिन्न समय के लिए भी यहाँ भिन्न- भिन्न शैली के गीत ईजाद किये गये हूं। नववयर्क और युवक-युवहियों के अतिरिक्त यहाँ छोटे-छोटे बच्चे भी स्वर्गीय संगीत की भंकार से स्थ।नीय वातावरण को प्रतिध्वनित करते रहते हूं। वे अपनी काव्य-सहचरी को मिट्टी के पफवान बना कर तृप्त करत और जो माला तथा करौंदे की लटकन से श्ंगार कर धूल के रंगमहल में उसके साथ क्रीड़ा करते हें। मिथिला के इन ग्रामीण गीतों को पुनरुजीवन प्रदान करने का अधिक श्रेय ठग्न-उत्सवों और हिन्दू पव॑-त्यौहारों को हूँ । संगीतमय हिन्दू-स्योहारों में रक्षा-बन्वन तीज यम-द्वितीया दीपमालिका और छठ उल्लेखनीय हैं । कंजरों के दर जो अपने काफिलों के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर पड़ाव डालते फिरते हू पुरातन लोक-गीतों के चलते-फिरते पुस्तकालय हैं । लग्न-उत्सवों पर खँजरी बजा-बजा कर मंगलात्मक बध ई-गीत गाना इनकी जीविका का साधन है । लोक-गीतों को प्रोत्साहन देने में मुसलमानों के करुण पुर-दर्द मर्सियों का भी जो मुहरंम के दिनों में हसन-हुसैन की याद में गाये जाते हैं बड़ा जबरदस्त हाथ हूं। ताजिये की निश्चित तिथि से कई-कई दिन पूर्व ही बाँस की खपाचों के वने बाजे बजा-बजा कर हिन्दू-मुसछमान सम्मिछित स्वरों से गान करते हें और उक्त तिथि के पहुँचने पर रंग-बिरंगे कागज के बनें ताजियों को सिर पर लेकर स्त्री-पुरुषों की टोलियां जमींदारों के दरवाजों की फेरी लगाती हूँ। कबंला की संवेदनशील अभिव्यंजना के साथ-साथ इनमें वीर-रस की लड़ाइयों का भी पुरजोश जिक्क आया है जिनका छुक-एक लफ्ज इस्लाम के बुलन्द सितारे की दुन्दुभि है।




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