भरतेश वैभव (भाग - 2) दिग्विजय | Bharatesh - Vaibhav (bhag - 2) Dikvijaya

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Bharatesh - Vaibhav (bhag - 2) Dikvijaya by वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री - Vardhaman Parshwanath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(९) इसलिये उसे. माताजी को छेजाने का अधिकार हैं । भ माताकी आज्ञाके अनुवतीं हं । सतुश्रीकी आश्नका सदा पालन करना मैं पना धर्म समझता ই | पूज्य माता ही मुझे हमेशा सम्मार्गका उपदेश देती रहती हैं | शिक्षा देती है, भें मातार्जाको कुछ भी कह नहीं सकता। भाई की इच्छा हो तो লই केजवि | भे इसपर क्या कहूँ हते सुनकर ग्रणयचने फिर कहा कि स्वामिन्‌ ! आपने जता विचार प्रकट किया उसी प्रकार आपनो महोंदरने नी कहा था कि इस कामके ढिये पूछने की क्या जरूरत है ? परतु उनसे मैंने निवेदन किया कि यह ठीक नहीं है । सूचना तो जरूर देनी ही चाहिये । বাতির खासकर आपको सूचित करनेके ভি में सांग द्रं भरतजी प्रणयचद्रकी वात सुनकर मन मनम ही कुछ हंसे व कदने कग कै प्रणयचेन्द्र ! तुम बहुत बुद्धिमान्‌ हो । तुम्हारे क्रतन्यपर मुझे बडी प्रसन्नता हुई | तुम बाहुबली के पासमे रहो ऐसा कहकर उसको उत्तम वस्र आमूप्रणोको दिया | प्रणयचन्द्र मी भरतजी को प्रणाम कर वपे निकल गया | प्रणयचन्द्र के बाहर जानेके बाद राजा भरत बाहुबरलीका दृत्तीपर मन मनम ही कुर हंसे । फिर प्रकटरूपसे वुद्रिसागग्से कहने खगे करि धुद्धिसागर ! देखा ए मेरे माकी उदण्डता को तुमन देखी न ? मने कुछ मायाचार रखकर यहां आना नहीं चाहता है | इसीलिये बहाना- नाजी बनाकर इते भेजा है, वह मी जानन सुनने का बहाना है | क्वा ही अच्छा उपाय ६। उसे में कामरेव है इस वातका अभिमान है। वह यहद्द समझता है कि उसके बराबरी करनेवाले कोई नहीं है | इसीको हुण्डावसपिणी का प्रभात कहते है | प्रणयचंद्रने असली बातकों छिपाकर रंग चढ़ाने हुए बातचीत की | में इत बातको अच्छी तरह जानता है कि भाई बाहुबली मर प्राति भाईके नाते माक्ति नहीं करेगा, उसकी मर्जी, मे ज्या करू :




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