पूजा - संग्रह | Pooja Sangrah

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Pooja Sangrah by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्श रल्ल्रय-पूजा पूजन योग भाव उपयोगी होता रे । श्ा० ४ । दरिपीत- दन्द तत्वार्थ के श्रद्धान से दो भव्य सम्यग्दर्शने झाधार उसका एक दे निज ध्ात्म रूप सुदर्शनस । दर्शन न शावों का यदा दे दृदय दशन दर्शन जिनदेव दर्शन से सुक्ते दो दिव्य सम्पग्दर्शनम्‌ ॥ मन्प्र-- 3ंग्हीं मीं अर परमात्सने-ध्नस्तनान्त-सम्पर्दुर्शन शुक्रये जम जरा शत्यु निवारणाय सम्पग्द्शन श्राप्तये ष्ट द्व्य यजामदे स्वाददा॥ कस सम्यर्ज्ञान-पद-पूजा जेह दोदा सब ससारी जीव में- होता हे संचान । पर जो जाने झाण्या- उनका सम्पगूत्ान 1 श्याप रूप दे झातमा- पर कमों के योग ॥ भूल सदा गति चार से भोग रहा दुग्व भाग ।२ बकरी टोने में रद्द सिंद धाज्ञ निजरूप । लखते सिंद पाक्रमी- दो जाता बन भूप। ३। येसे ही यह आतमा परमातम पद याग। ्ञातम ज्ञानी हो करे भव दुग्य भाव बियाग ॥४॥ तज-- चित इस्स धरा धनुमव रंगे पीस परम पद संपियें नित लानी की सेया दे- सुप मेवा झानस ज्ञान का । टेर। परमातम पूर्ण ज्ञान बला पद पूजा स जीवन सफला | मिट जाय छनादि करम बना निन चाना की० 1 है । प्रदेप नहीं अपलाप नदी मास्सर्य नई झातराप नदी । सामावन अर उपघात नहीं निन ज्ञानी ची० 1 ४ | झाधव मिटते संवर होता ज्ञानावरणी चय भी दाता । ज्ञानादय जीवन में होना पिन ज्ञानी का० 1३ । हैं जय रुप संसार सभी उसमें पट




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