युगप्रधान श्रीजिनच्नद्रसूरि | Yugpradhan Shrijinchandsuri

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Yugpradhan Shrijinchandsuri by महामहोपाध्याय राय बहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा - Mahamahopadhyaya Rai Bahadur Pandit Gaurishankar Hirachand Ojha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९७ ) हमारो साहित्य प्रगति-- सं० १६८४ के वसनन्‍्त पंचमीफो परम पूज्य आचार्य मद्ाराज, सऊलागम रहस्य बेदी, परम गीतार्थ, श्रीजिनक्षपाचन्द्रसूरिजी अपसे विद्वान शिप्य, प्रयर्तक सुससागरजों आदि मुनि मण्टख् साथ बीकानेर पयारे। सौभाग्ययश्ञ उनऊा चातुर्मास भी हमारे मकानमे हुआ, इससे हमारे जीयन पर गहरा प्रभाव पड़ा। प्रतिक्रण, ब्यास्यान अयगाविफे अतिरिक्त समय समय पर पूज्य जाचार्यश्री णवं प्रयर्चकजी आदिते सैद्धान्तिक प्रिपयोंमें प्रब्नोत्तर करते हुए घार्मिमिक तत्त्योका यत्किब्चितसू बोष हुआ | ययपि आपभ्रीका छय- भग तीन वर्ष बोफानेरमें त्रिराजना हुआ, কিন্তু হন ইভ १॥ वर्प ही आपके सत्समागमऊका सुयोग मिला ) एक दिन प्रयर्तकजीस “आनन्द काव्य महोदथि, छपा मोक्तिक”? छाफर श्रोयुक्त मोहनलाल दुलीचन्द देवाड्‌ ए ^ 1. 7,.ॐ का “कमियर ममयघुन्दररः नामु नियन्य पडा, तभी से हमारे ह्द्यमे कपरिपरके प्रति अगाध भक्ति उत्पन्न हुई गौर औप ही उनकी कृतियोका सोज-शोध करना आरम्भ कर दिया | “श्रीमहावीर जेन मण्टल” के छृनिपय हस्नटिपिन भ्रन्थातो मेगनाया । समीभाम्यनय उनमे हमें एक ऐसा गुटका (पुस्तकाफार प्रति) मिला, जिसने हमारी मानसिक- भायनाऊफी अत्यधिक उत्ते जन दिया, इसका कारण था--उक्त गुटकेसे दो सोफे छगमग कविवरकी छोटी कृतियोंका उपलब्य होना, जिनमे बहुत सी तो देशाड महोदूयको भी अनुपछत्य थी। वस, उत्तरोत्तर खोज ओघऊी रुचि बढतों गई , उसने इतने अधिक प्रमाणमे कार्य > र




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