हमारी नाट्य परम्परा | Hamari Natya Parampara

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Hamari Natya Parampara by श्रीकृष्ण दास - Shree Krishna Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १५ ] प्राप्त रहा | अशोक ने यद्यपि ऐसे 'समज्जा? (समाज) का विरोध किया जिसमें लोग शरात्र पीते थे, मास खाते थे और अश्लील व्यवहार करते थे, परन्तु प्रियदर्शी अशोक ने अन्य प्रकार के 'समज्जा? का जिसमें घामिक और सामाजिक आयोजन हुआ करते ये विरोध नहीं किया | बौद्ध परम्परा में साधारणतया नाटकों या अन्य प्रकार के मनोरंजनों को प्रश्रय नहीं दिया गया, परन्तु ऐसी कथाएँ मिलती ई जिन पर विश्वास करने से यह माना जा सकता है कि स्वयं मगवान्‌ गौतम बुद्ध के युग मे राजग्रद म नाटक खेले जाते थे | इसी प्रकार कणवेर जातक में श्यामा नाम की वेश्या की प्रेमकथा मिलती है। उस कथा में न्ों द्वारा घूम-घूम कर नाटक करने का मी एक स्थल आता है | उस नाटक में नटों ने सब से पहले यह गीत सुनाया था- “यन्तं वसन्तसमये कणवेरेस भाजुसु, साम॑ बाहाय पीलेसि सा ते आरोग्यमत्रति ॥ (तूने वसन्त समय में लाल लाल कनेर के बृक्षों के वीच मे जिस सामा को हाथों से दवाया था, वह तुके अपने आरोग्य की सूचना देती है |) जैन परम्परा में भी सूर्यामदेव के सामने नाटक खेलते का प्रसंग आता है | इस प्रकार चैदिक साहित्य, हिन्दुओं के धार्मिक साहित्य, बौद्ध ओर जैन साहित्य सब में किसी न किसी रूप में रंगमंच के होने ओर उन पर नाटकों के खेलने की परम्परा पायी जाती है। अश्वघोष श्नौर मास के युग से राजशेखर के युग तक इस प्रकार अत्यन्त समृद्ध नाव्य-साहित्य और रगमंच का ऐतिहासिक दृष्टि से कम से कम चौदद सो वर्षों का क्रमवबद्ध गौरवशाली इतिहास मिलता है। यदि इतने लम्बे युग को न मानें और कुछ पाश्वात्य और भारतीय विद्वानों के मत के अनुसार इस सम्पूर्ण अवधि को एक ही हजार वर्ष मान लें तो भी यह गव॑ और गौरव की वात है कि भारतवर्ष में




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