मंगलाचरणम् | Mangalachranm

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~ परिडत माधवप्रसादजी मिश्र जो ढोंग होता है, उसके वह विरोधी थे! श्रुति-स्छति-पुराण- प्रतिपाद्य सनातन धर्ममें उनकी पूरी आस्था थी और उसके वह बड़े जबद॑स्त प्रतिपादक थे। उनके प्रयलसे देशमें कितनी ही सनातन घमंसभाएं' प्रतिष्ठित हुई थीं हरियाना प्रान्तमें जिन लोगोंने सती-धर्मके विपरीत विश्ववा- विवाह कर हिन्दू-समाजकी पवित्रताकी नष्ट करना चाहा था, पञश्चायती-संगठन द्वारा उनके उस दुस्साहसकों तोड़ना मिश्रजी जेसे शक्तिशाली व्यक्तिका ही काम था। भिवानीकी धमंसभाके आदि संस्थापक मिश्रजी ही थे। पुराने और नये भारत-घर्म-महा- मण्डलके नेताओंसें आप मुख्य थे। महामणडछरूकों विधि-वद्ध करानेमें मिश्रजीने जो अविराम परिश्रम किया था, उसे आज महामण्डर चाह भूर जाय, किन्तु सनातन-धर्मीं संसार सदा स्मरण रखेगा । उस समय महामरुडरका एक पान भी मिध्रजी- की सम्मति बिना नहीं हिलता था। खधर्म और ब्राह्मण जातिके प्रति लोगोंके उपेक्षाके माव देख कर सं० १६६० में कलकत्तेमें मिश्रजीने अपने मित्र प० कन्हेयालालजी गोपालाचार्य, प० शंभू- रामजी पुजारी, प० भूरालालजी मिश्र, प० बाल्मुकुन्दजी पुजारी प० केदारनाथजी बावलिया, प० डमाशडुरजी बेदपाठी, प० मिश्र, प० श्रीनारायणजी वेद्य, प० बालमुकुन्द्जी वेद्य प० हीरालालजी शर्मा और प० शमचन्द्रजी जोशी प्रमुर




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