भारतीय साधना और सूर - साहित्य | Bharateey Sadhana Aur Soor Sahity
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
48 MB
कुल पष्ठ :
417
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)| ७ ।ै
भारतीय-साधना की चौथी विशेषता प्रत्येक साधक की श्रव्या के अनुसार
उसे साधना में प्रवृत्त करना है | हर सब एक ही परिस्थिति में नहीं हैं । जो
प्राणी जिस कोटि, श्रेणी या स्थिति में है, वह उसी स्थिति में रहता हुआ साधना
कर सकता है। दत्त का केन्द्र एक है, पर उसकी परिधि के बिन्दु अनेक
ओर वे सब एक-एक सीधी रेखा के द्वारा उससे संयुक्त हो जाते है। जो विर
जहाँ है, उसे वहाँ से किसी दुसरे विन्दु श्रथवा उसके माग का उल्लंघन नहीं
करना पड़ता | वह सीधे अपने स्थान से चलकर केन्द्र-विन्दु के साथ एक हो
जाता है। इसी प्रकार जो प्राणी जिस अवस्था में है, वह वहीं से अपने श्रन्तिम
लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है | वेद ने “विश्वाभिःगीमिःईमहे?! कहकर इसी
तथ्य की श्रोर संकेत किया है |
मारतीय-साधना गुरु की महत्ता को स्वीकार करती है | यह उसकी पाँचवीं
विशेषता है | वैसे तो सब गुरुओ्नों का आदि गुरु वह परम-तत्व ही है,' जिसे
ब्रह्म, ईश्वर, प्रभु, परमात्मा थ्रादि अनेक नामों से पुकारा जाता है। पर
साधना के क्षेत्र में साथक को उस पथ के चीणंत्रत, पथक्रान्त, द्रष्टा पथिकों से
भी पथ-प्रदर्शन मँ पर्याप्त सहायता मिल जाती है। पथ तो उसे स्वयं ही पार
करना होता है, पर उस पथ को दिखलाने वाला, मार्ग में आनेवाले कंटक रूप
विध्नों से सावधान करने वाला श्रौर ग्रावश्यकता पड़ने; पर हाथ लगाकर
श्रागे बढ़ाने वाला एक समथ पथ-प्रदर्शक चाहिये ही | शुरू का महत्व
इसी कारण है | गुरु अविवेकी साधक की आँखों में ज्ञान का अश्रंजन तथा
भक्ति का सुरमा लगा केर उसे विवेक-सम्पन्न द्रष्य बना देता दहै) वह
दीपक हाथ मेँ देकर कहता दै-- “रफ प्रकाश में आगे बढ़े चलो ।”” फिर यदि
कहीं स्खलन, होता है, तो तुरन्त मागं पर चलने के लिए. लड़ा कर देता है, व्य-
वधान श्राने पर समाधान करता हे श्रौर साधक को उसके गंतव्यश्थल तक
पहुँचा देता है ।
वास्तव मे हम समी यात्री है, पथ के पथिक हैं। जब से अपने घर से प्रथक
हुये है, तब से चल ही रहे हैं और तब तक चलते रहेंगे, जब तक श्रपने घर् फिर
नहीं पहुँच जाते | भारतीय साधना हम सब पथिकों को उसी घर तक पहुँचा ने का
का, 7 त ताम
१--श्रथ वैद २०।१९।३
२--सपूर्वेध्रामपि ुरुःकालेन श्रनवच्छेदात् । योग दशंन, समाधि पाद, सूत्र २६।।
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