संस्कर्ता नाट्यसिद्धांत | Samskrta Natyasiddhanta
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)৫ नाटयसिद्धान्त
वरयते स्म चरितम् से अतीत वाक वा ही बोध होता है। अतएवं भविष्य-
कालीन तैताके भी चरित का अभिनय असम्भव है! इसवे' अतिरिक्त एक
फारण यह भी है कि किसी को यह ज्ञात नही रहता कि भविष्य में कौन
घया होगा! ? इस प्रकार उपर्युक्त कारणों से नाटक में वत्ंमानकालीन एवं
भृतकालीत नेता के चरित वा निवन्धन नही करना चाहिए 1
नाटकं का नायक मृत्युलोक का त्रिय होना चाहिए ! उसये' लिए यह
आवश्यक नही है कि उसका अभिषेक हो ही घुका हो। राम, जीमूतवाहन
एव पार्थ आदि अनभिषिक्त क्षत्रिय नायक के रूप में चित्रित विए जाते है।
जो लोग नाटक के मायक फो दिव्य कोटि का मानते है, उनका मत॒ समीचीन
नही है बर्योकि देवताओं फे लिए तो अत्यन्त दुसाध्य कार्य की भी सिद्धि
उनकी इच्छा मात्र से ही हो जाती है। पुनश्च देवताओं के चरितो वा अनु-
ध्ठान मत्यों के लिए अशवय होने के कारण उपदेशयोग्य मही होता है।।
नादघपष्चात्न मे नायक के लिए 'दिव्याश्रयोपेतम! विशेषण प्रयुक्त हुमा है।
अमिनवयुप्त में इसका अर्थ देवीपुरष ' किया है । काव्यानुशासनकार नै नमिनव-
शुप्त के मत का खण्डन करते हुए लिखा है कि दिन्याश्रयोपेतम्' से मरतमुति
का अभिप्राय देवीपुरुष से नही था । उन्होने इसका प्रयोग 'देवी सहायता! के
अर्थ में किया था। नाटघदर्पणकार काव्यामुशासनकार के ही मत को मानने
वाते हैं। वस्तुत यही अथं है भी सही । अभिनवगुप्त के मत को मानमे म जो
झदचनें हैं, उनका दिग्दर्शन ऊपर की पंक्तियों में करा दिया गया है |
भरतमुनि के सिद्धान्त तथा नाटककारों के व्यवहार दोनो के अमुस्तार
नाटकों मे धीरौदात्त, धीरोद्धत, घीरललित एवं घीरप्रशान्त इन चारो प्रकार
को चायको का चित्रण किया जा सकता है। विश्वनाथ एवं शिगभूपाल आदि
विद्वान केवल धीरोदात्त को ही नाटक का नायब मानने के पक्ष में है, अन्य
को नही | परन्तु उनका यह मत समीचीन नही हैं क्योकि ससकृृत के बहुत से
'नाटको में 'धीरलीलित आदि कोटि के नायक भो पाये जाते हैं। নফল মহতী
१ भविष्यतस्तु वृत्त चरितमपि न भवत्ति, चर्यते सम बरितमित्यतीत-
निर्देशात् । ( नाटबदपंण, पृ० २५ )
« २ देवताना तु दुसुपपादस्थाप्यस्थ॑येच्छामात्॒त एवं सिद्धिरिति तच्चरितम-
खबयानुष्ठानत्वाद् ने मर्त्यानामुपदेशयोग्यमु, देन ये दिव्यमपि नेतार
मन्यन्ते, न॒ ते सम्यगमसतेति | ( नाटबदर्षण, पु० २७ )
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