तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा - भाग 1 | Teerthankar Mahavir Aur Unki Aacharya Parampra - Vol 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आमुख भारतोय संस्कृतिमें आहंत संस्कृतिका प्रमुख स्थान है। इसके दर्शन, सिद्धांत, धर्मं और उसके प्रवत्तंक तीथंकरों तथा उनको परम्पराका महत्त्वपूर्ण अवदान है। आदि तीथंकर ऋषभदेवसे लेकर अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर और उनके उत्तरवर्ती आचार्योने अध्यात्म-विद्याका, जिसे उपनिषद्-साहित्यमे* 'परा विद्या! (उत्कृष्ट विद्या) कहा गया है, सदा उपदेश दिया और भारतकी चेत्तनाको जागृत एवं ऊध्व॑मुखी रखा है। आत्माको परमात्माकी ओर ले जाने तथा शाइवत सुखकी प्राप्तिके लिए उन्होने अहिसा, इन्द्रियनिग्नह, त्याश्र और समाधि (आत्मलीनता) का स्वय आचारण किया भौर पश्चात्‌ उनका दूसरोको उपदेश दिया । सम्भवतः इसीसे वे अध्यात्म-शिक्षादाता और श्रमण-सस्कृतिके प्रतिष्ठाता कहे गये है । भज भी उनका मागंदशेन निष्कटुष एवं उपादेय माना जाता है। तीथकर महावीर इस संस्कृत्तिके प्रबुद्ध, सबल, प्रभावशाली और अन्तिम प्रचारक थे । उनका दशंन, सिद्धान्त, धमं भौर उनका प्रतिपादक वाङ्मय विपुल मात्रामे आज भी विद्यमान है त्तथा उसी दिशामें उसका योगदान हो रहा है। अतएव बहुत समयसे अनुभव किया जाता रहा है कि तीर्थंकर महावीरका सर्वाज्भपूर्ण परिचायक ग्रन्थ होना चाहिए, जिसके द्वारा सवंसाधारणको उनके जोवनवृत्त, उपदेश और परम्पराका विशद परिज्ञान हो सके । यद्यपि भगवान्‌ महावीरपर प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश और हिन्दीम लिखा पर्याप्त साहित्य उप- लब्ध है, पर उससे सवंसाधारणकी जिज्ञासा शान्त नही होतो । सोभाग्यकी बात है कि राष्ट्रने तीथंड्भर वद्धंमान-महावी रकी निर्वाण-रजत्त- शती राष्टोय स्तरपर मनानेका निङ्चय किया है, जो आगामी कात्तिक कृष्णा अमावस्या वौर-निर्वाण सवत्‌ २५०१, दिनाङ्क १३ नवम्बर १९७४ से कात्तिक १ षर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनमः । ऋषभादि-महावीरान्तेम्थ' स्वात्मोपलन्धये ॥ महाकलङ्कुदेव, कधीयस्त्रय, मङ्खलपद्य १ । २. मुण्डकोपनिषद्‌ १।१।४१५ । ३. स्वामो समन्तभद्र, युक्त्यनुशासन का० ६ । आमुख ; १३




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