ब्रजभाषा के कृष्णभक्ति-काव्य में अभिव्यंजना-शिल्प | Brijbhasha Ke Krishnabhakti Kavya Mein Abhivyanjana Shilp

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका मानव-मन वस्तु-जगत्‌ के विभिन्न सूक्ष्म श्रौर स्थूल भ्रंशो से सम्पकं स्थापित कर उसे सत्य रूप मेँ ग्रहण करता है । साधारण जीवन मे इसं सम्पकं का रूप अधिकतर स्थूल धरातल पर होता है परन्तु कलाकार की सूक्ष्म इन्द्रिया वस्तु-जगत्‌ के स्थुल सत्यं का अतिक्रमण करके उसमे अन्तनिहित सौन्दर्य और सत्य को ग्रहण करती है । मनुष्य के मस्तिष्क की असीमता स्थूल परिसीमाओ का श्रतिक्रमण करके अ्रसीम ब्रह्म, निस्सीम आकाश, अ्रनन्त भूमण्डल और अतल सागर पर विजय आस करती है, उसकी सौन्दर्य-कल्पना प्रकृति के अनन्त सौन्दर्य से होड लेने की क्षमता रखती है| वैयक्तिक दृष्टिकोण किसी व्यक्ति मे. रहस्यवादी की प्रेमविद्धलता बनता है, किसी मे कलाकार की सौन्दर्योपासना तथा किसी अन्य मे वैज्ञानिक की तकंशीलता । वुद्धि तथा भावना के इस सूक्ष्म और अमतं स्तर पर व्यक्ति प्रौर वस्तु-जगत्‌ का एकात्म्य हो जाता है तथा ग्रालम्बनं के प्रति उसकी जिज्ञासाध्रों का प्रत्युत्तर इसी सूक्ष्म स्तर पर उसकी प्रतिमूरतियों तथा उसके प्रति धारणाओ के रूप में प्राप्त होता है। इसी 'सद्यानुभूति की अभिव्यक्ति मे कला, विज्ञान, दर्शन इत्यादि का आरविर्भाव होता है । चित्रकार की कूची, कवि की लेखनी, दाशेनिक का चिन्तन तथा वैज्ञानिक के प्रयोग इसी श्रभीष्ट की प्राप्ति के साधन है। दाशंनिक वस्तु-जगत्‌ को साधन-रूप मे ग्रहण कर उसके माध्यम से चिन्तन मे लीन होकर उसका अन्वेषण करता है। वज्ञानिक वस्तु-जगत्‌ पर विजय की कामना से अभियान करता है। कलाकार का श्रमीष्ट जगत्‌ के पार देखना नही होता, वह तो सत्य की अभिव्यंजना वस्तु-जगत्‌ के सम्पर्क मे रहकर ही करना चाहता है । इस प्रकार दृष्टिकोण के वैभिन्‍न के कारण कलाकार, वैज्ञानिक, दाशेनिक तथा साधारण व्यक्ति के लिये सत्य का श्र॒र्थ पृथक्‌-पृथक्‌ होता है । कलाकार का दृष्टिकोण भ्र प्रदन यह दै कि कलाकार का सत्य क्या होता है तथा वस्तु-जगत्‌ के सम्पर्कं मे उसकी मानसिक प्रक्रिया का क्या रूप होता है ? कलाकार का उदेश्य सिद्धान्तो का प्रति- पादन करना नही होता, सिद्धान्त-प्रतिपादन के लिये वह वस्तु-जगतु को माध्यम नही बनाता प्रत्युत्‌ उसके साथ अपने अस्तित्व का तादात्म्य कर लेता है। वह सत्य मे ही सलग्न हो जाता है अर्थात्‌ उसका सम्पूणं व्यक्तित्व उस सत्य की श्रनुभूति से श्रभिभ्रत हो उठता है। अनुभूति की चरमता में उसका भौतिक अस्तित्व खो जाता है और तभी वह अ्रपनी श्रनुभूतियों मे साकार सत्य की भ्रतिमूर्ति का निर्माण करता है। यह अनुभूति रूप-निदर्शनात्मक होती




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